Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 128
ऋषिः - श्रुतकक्षः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
1

मा꣡ न꣢ इन्द्रा꣣भ्या꣢३꣱दि꣢शः꣣ सू꣡रो꣢ अ꣣क्तु꣡ष्वा य꣢꣯मत् । त्वा꣢ यु꣣जा꣡ व꣢नेम꣣ त꣢त् ॥१२८॥

स्वर सहित पद पाठ

मा ꣢ । नः꣣ । इन्द्र । अभि꣢ । आ꣣दि꣡शः꣢ । आ꣣ । दि꣡शः꣢꣯ । सूरः꣢꣯ । अ꣣क्तु꣡षु꣢ । आ । य꣣मत् । त्वा꣢ । यु꣣जा꣢ । व꣣नेम । त꣢त् ॥१२८॥


स्वर रहित मन्त्र

मा न इन्द्राभ्या३दिशः सूरो अक्तुष्वा यमत् । त्वा युजा वनेम तत् ॥१२८॥


स्वर रहित पद पाठ

मा । नः । इन्द्र । अभि । आदिशः । आ । दिशः । सूरः । अक्तुषु । आ । यमत् । त्वा । युजा । वनेम । तत् ॥१२८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 128
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
Acknowledgment

पदार्थ -

हे (इन्द्र)=परमैश्वर्यशाली प्रभो! (नः) = हमें (अक्तुषु) = रात्रि के समान अज्ञानान्धकारों में यह वासना (मा)=मत (आयमत्) = काबू कर ले। मनुष्य का जीवन प्रायः अन्धकार में चलता है। कभी-कभी उसके जीवन में प्रकाश की किरण [ flash of light] चमक उठती है, परन्तु सामान्यतः अन्धकार ही रहता है। उसे अपने जीवन के उद्देश्य का ध्यान ही नहीं होता। 'क्या करने आया था और क्या करने में वह लगा हुआ है ? ' धन-सम्पत्तिके जोड़ने में और भोगों के भोगने में वह अहर्निश लिप्त रहता है। यही उसका रात्रि के समान अन्धकारमय जीवन है और इन रात्रियों में कामादि वासनाएँ उसे और अधिक काबू किये चली जातीं हैं। वासनाओं से अभिभूत यह व्यक्ति अपनी दुर्गति का आभास होने पर प्रभु से इस रूप में प्रार्थना करता है कि ये व्यसन हमें दबा न लें। यह वासनाएँ कैसी हैं?

१. (अभि आ दिश:) = ' यह कमा लिया है', अब यह कमाओ; उस शत्रु को मार लिया है, अब इसे मारो; यह कर लिया है, अब वह करो; इतना जुटा लिया है, अब इतना जुटाने की व्यवस्था करो;-इस प्रकार ये वासनाएँ हमें चारों ओर अपने आदेशों से दौड़ लगवा रही हैं। इस व्यक्ति को शान्ति नहीं, घर में रहने का सुख नहीं।

२. (सूरः) = [सु अतिशयितम् उरो यस्य] यह वासना बड़ी बलवान् है । न चाहते हुए भी हम उससे धकेले जा रहे हैं। चाहते हुए भी इसे हम काबू में नहीं कर पाते । काबू किये बिना कल्याण नहीं, परन्तु काबू करना भी कठिन है। हाँ, त्वा युजा वनेम तत्-हे प्रभो! तेरे साथ युक्त होकर हम इसे समाप्त कर डालें। आपके सहायक होने पर इस वासना ने हमारा क्या बिगाड़ना? आपकी तो दृष्टि से ही यह भस्म हो जाती है। मुझे आपका ज्ञान हुआ, आपका मेरे हृदय में वास हुआ और यह वासना नष्ट हुई। एवं, आपका ज्ञान ही मेरी शरण है।

हे प्रभो! कृपा करो। आपकी कृपा ही मुझे वासना पर विजयी बनाएगी। श्रुत - विज्ञान ही मेरा कक्ष है, सुरक्षा स्थान है और आपकी मित्रता ही मुझे शक्तिशाली ‘आङ्गिरस' बनानेवाली है।

भावार्थ -

प्रभु के ज्ञान द्वारा मैं प्रभु को अपना मित्र बनाऊँ और इस मित्रता द्वारा वासना का विनाश करने में समर्थ बनूँ।
 

इस भाष्य को एडिट करें
Top