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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 143
ऋषिः - वत्सः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
1
उ꣣पह्वरे꣡ गि꣢री꣣णा꣡ꣳ स꣢ङ्ग꣣मे꣡ च꣢ न꣣दी꣡ना꣢म् । धि꣣या꣡ विप्रो꣢꣯ अजायत ॥१४३॥
स्वर सहित पद पाठउ꣣पह्वरे꣢ । उ꣣प । ह्वरे꣢ । गि꣣रीणाम् । स꣢ङ्गमे꣢ । स꣣म् । गमे꣢ । च꣣ । न꣡दीना꣢म् । धि꣣या꣢ । वि꣡प्रः꣢꣯ । वि । प्रः꣣ । अजायत ॥१४३॥
स्वर रहित मन्त्र
उपह्वरे गिरीणाꣳ सङ्गमे च नदीनाम् । धिया विप्रो अजायत ॥१४३॥
स्वर रहित पद पाठ
उपह्वरे । उप । ह्वरे । गिरीणाम् । सङ्गमे । सम् । गमे । च । नदीनाम् । धिया । विप्रः । वि । प्रः । अजायत ॥१४३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 143
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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विषय - विकास के लिए उचित वातावरण
पदार्थ -
‘विप्रः' शब्द सामान्यतः ब्राह्मण के लिए प्रयुक्त होता है। यह विकास की चरमावस्था की सूचना देता है। जो व्यक्ति अपने में ज्ञान को भरने में असमर्थ रहा, वह 'शुचा द्रवति' शोक से सन्तप्त होने के कारण 'शूद्र' कहलाया। विप्रः = वेदों के ज्ञान को अपने अन्दर वि=विशेषरूप से [प्रा= पूरणे] प्र= अपने अन्दर भरनेवाला ब्राह्मण यहाँ विप्र शब्द से कहा गया है। ऐसा ब्राह्मण (अजायत) = प्रादुर्भूत होता है। कहाँ ? (गिरीणां उपह्वरे) = गिरियों के सान्निध्य में (च) = तथा (नदीनां सङ्गमे) = नदियों के सङ्गम में। कैसे? (धिया) = धी से।
यहाँ ‘गिरीणां' और 'नदीनां' शब्दों के साथ-साथ प्रयोग से इनका अर्थ पर्वत व नदी करने का प्रलोभन होता है, परन्तु गिरि शब्द का अर्थ venerable, respectable=आदरणीय, सम्माननीय है। गिरि और गुरु शब्द इ और उ का भेद से भिन्न दिखते हुए भी एकार्थ-वाचक है। ‘गृणन्ति इति गिरयः गुरवो वा' = उपदेश करने से ये गिरि या गुरु कहलाते हैं। ('मातृदेवो भव', 'पितृदेवो भव', 'आचार्य देवो भव', 'अतिथि देवो भव') इन वाक्यों में इन गिरियों का उल्लेख हो गया है।
पाँच वर्ष तक माता, फिर आठवें वर्ष तक पिता, आगे पच्चीसवें वर्ष तक आचार्य और फिर गृहस्थ में अतिथि आदरणीय गिरि [गुरु] होते हैं। इनके उपह्वरे [निकटे] निकट रहकर ही बालक ज्ञान का विकास करते-करते विप्र बन जाता है। माता-पिता को बालकों का पालनपोषण भृत्यों पर न डालकर सदा स्वयं करना चाहिए। नौकरों से पाले जाकर वे क्या विप्र बनेंगे? विद्यार्थी के आचार्य के समीप रहने की भावना को अन्तेवासी शब्द सुव्यक्त कर रहा है। गृहस्थ सदा अतिथियों की सेवा करता हुआ उनका सान्निध्य प्राप्त करने का यत्न करे।
‘नदीनाम्’ में ‘नदी' शब्द न लेकर 'नदि' शब्द लेना चाहिए। इसका अर्थ praise=स्तुति है। वह व्यक्ति जिसका जीवन ही स्तुतिमय हो गया है 'नदि' कहलाता है। इन ब्रह्मनिष्ठ, सदा प्रभु की स्तुति करनेवाले नदियों के (सङ्गमे) = सङ्ग में आकर मनुष्य 'विप्र' बनता है। जहाँ कहीं इन व्यक्तियों का प्रवचन हो, सत्सङ्ग हो, वहाँ एक सद्गृहस्थ को अवश्य सम्मिलित होने का यत्न करना चाहिए।
इन गिरियों के निकट व नदियों के सङ्गम में मनुष्य विप्र तो बनता है, परन्तु बनता तभी है यदि उसके पास 'धी' हो। धी शब्द के चार अर्थ हैं [१] बुद्धि= Intellect, [२] प्रवृत्ति=Propensity, [३] भक्ति, श्रद्धा=Devotion, [४] त्याग = Sacrifice | बुद्धि के अभाव में हम उनके उपदेशों को समझ ही न सकेंगे, अतः हम उनसे क्या लाभ लेंगे? बुद्धि होने पर भी यदि हमारी उन उपदेशों सुनने की प्रवृत्ति न हो, तो हम बुद्धि का अन्य ही प्रयोग करते रहेंगे। बुद्धि और प्रवृत्ति के साथ भक्ति व श्रद्धा भी अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि एकदम तो लाभ होता नहीं, श्रद्धा के अभाव में देर तक उस मार्ग पर चलना सम्भव नहीं रहता और अन्त में त्याग की आवश्यकता तो स्पष्ट ही है। कुछ-न-कुछ आराम व सुख का त्याग, गुरुशुश्रूषा व सत्सङ्ग में सम्मिलित होने के लिए करना ही पड़ता है।
एवं, धी से यदि हम माता-पिता, आचार्य, अतिथि व ब्रह्मनिष्ठ विद्वानों के सम्पर्क में आकर कण-कण करके ज्ञान का सञ्चय करेंगे तो इस मन्त्र के ऋषि ‘काण्व' व कण्वपुत्र कहलाएँगे और प्रभु के प्रिय बनकर 'वत्स' होंगे।
भावार्थ -
गुरुओं का सान्निध्य तथा ब्रह्मनिष्ठ विद्वानों का सङ्ग हमें बुद्धि द्वारा विप्र-अपने को ज्ञान से पूरण करनेवाला बनाए ।
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