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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1445
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
1
ह꣡स्त꣢च्युतेभि꣣र꣡द्रि꣢भिः सु꣣त꣡ꣳ सोमं꣢꣯ पुनीतन । म꣢धा꣣वा꣡ धा꣢वता꣣ म꣡धु꣢ ॥१४४५॥
स्वर सहित पद पाठह꣡स्त꣢꣯च्युतेभिः । ह꣡स्त꣢꣯ । च्यु꣣तेभिः । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । सुत꣢म् । सो꣡म꣢꣯म् । पु꣣नीतन । पुनीत । न । म꣡धौ꣢꣯ । आ । धा꣣वत । म꣡धु꣢꣯ ॥१४४५॥
स्वर रहित मन्त्र
हस्तच्युतेभिरद्रिभिः सुतꣳ सोमं पुनीतन । मधावा धावता मधु ॥१४४५॥
स्वर रहित पद पाठ
हस्तच्युतेभिः । हस्त । च्युतेभिः । अद्रिभिः । अ । द्रिभिः । सुतम् । सोमम् । पुनीतन । पुनीत । न । मधौ । आ । धावत । मधु ॥१४४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1445
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - पवित्रता व माधुर्य
पदार्थ -
प्रभु-स्तवन के द्वारा पवित्रीभूत हृदय में जब प्रभु का प्रकाश होता है तब कहते हैं कि वह सोम=शान्त प्रभु सुत - उत्पन्न हुए हैं। स्तोताओं के लिए उपदेश देते हैं कि (सुतं सोमम्) = इस आविर्भूत सोम का लक्ष्य करके (पुनीतन) = अपने को अधिक और अधिक पवित्र बनाओ। पवित्र हृदय में ही उस प्रभु का दर्शन व निवास होता है ।
पवित्रता कैसे करें ? १. (हस्तच्युतेभि:) = [हन् धातु से बना हस्त शब्द यहाँ हिंसा का वाचक है]। हिंसाओं को छोड़ने के द्वारा । पवित्रता के लिए हिंसा का त्याग आवश्यक है। २. (अद्रिभिः) = [अद्रय: आदरणीयाः – नि० ९.८] आदर की भावनाओं [adoration] से । जब हम आदर की भावनाओं से युक्त होकर हृदय में प्रभु का उपासन करते हैं तब सब वासनाओं का उन्मूलन होकर हृदय पवित्र हो जाता है ।
‘परमं वा एतद् रूपं देवतायै यन्मधु' [तै० ३.८.१४.२] इस वाक्य में उस देवता का जो सर्वोत्कृष्टरूप है, उसे 'मधु' कहा गया है । (मधौ) = उस मधुरूप प्रभु में (आधावत) = सब प्रकार से अपने को शुद्ध कर डालो [धाव्= शुद्धि] । अपने को शुद्ध करके स्वयं भी (मधु) = मधु ही हो जाओ । प्रभु के अन्दर निवास करनेवाला 'मधु' ही बन जाता है— कभी कड़वी वाणी का प्रयोग नहीं करता । 'उपासना और कटुता' ये विरोधी बातें हैं । प्रभु के उपासक का जीवन माधुर्य से परिपूर्ण होता है ।
भावार्थ -
हिंसा को छोड़कर, प्रभु के प्रति आदर की भावना से हम अपने को पवित्र बनाएँ । माधुर्यमय प्रभु में निवास कर 'मधु' ही बन जाएँ।
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