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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 154
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः, वामदेवो वा देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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सो꣡मः꣢ पू꣣षा꣡ च꣢ चेततु꣣र्वि꣡श्वा꣢साꣳ सुक्षिती꣣ना꣢म् । दे꣣वत्रा꣢ र꣣꣬थ्यो꣢꣯र्हि꣣ता꣢ ॥१५४

स्वर सहित पद पाठ

सो꣡मः꣢꣯ । पू꣣षा꣢ । च꣣ । चेततुः । वि꣡श्वा꣢꣯साम् । सु꣣क्षितीना꣢म् । सु꣣ । क्षितीना꣢म् । दे꣣वत्रा꣢ । र꣣थ्योः꣢꣯ । हि꣣ता꣢ ॥१५४॥


स्वर रहित मन्त्र

सोमः पूषा च चेततुर्विश्वासाꣳ सुक्षितीनाम् । देवत्रा रथ्योर्हिता ॥१५४


स्वर रहित पद पाठ

सोमः । पूषा । च । चेततुः । विश्वासाम् । सुक्षितीनाम् । सु । क्षितीनाम् । देवत्रा । रथ्योः । हिता ॥१५४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 154
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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पदार्थ -

‘हे प्रभो! यह सांसारिक भोगों का जीवन तो ठीक नहीं है' यही मेरे अनुभव का निचोड़ है। इस जीवन ने तो मुझे अभिमानी व क्षीणशक्ति ही बना दिया। आप कृपा करो कि मुझ में (सोमः) = सौम्यता (च) = और (पूषा) = पोषण अर्थात् पुष्टि व शक्ति (चेततुः) = चेत उठें, जाग उठें। मैं विनीत बन जाऊँ और शक्ति सम्पन्न हो जाऊँ । सांसारिक भोगों से मैं ऊपर उठू और अभिमान व निर्बलता के मूल को ही समाप्त कर दूँ। ये सोम और पूषा (विश्वासां सुक्षितीनाम्) = सब उत्तम मनुष्यों में हितः = निहित होते हैं। सब उत्तम मनुष्यों का ये कल्याण करते हैं। इन्हें अपने में निहित कर मैं भी उत्तम मनुष्य बन जाऊँ। ये सोम और पूषा देवत्रा (हिता) = देवों में निहित होते हैं, इन्हें अपने में धारण कर मैं भी देव बन जाऊँ। रथ्योः हिता=[रथी-रथ का अधिष्ठाता] ये सोम और पूषा उस दम्पती में निहित होते हैं जो रथी- शरीररूप रथ के अधिष्ठाता होते हैं। मैं भी उन्हीं जैसा बनूँ।
कहाँ शुन:शेप की प्रार्थना धन, सन्तान, अन्न व भूख के लिए थी और कहाँ अब वह उन वस्तुओं के तत्त्व को पहचानकर सोम और पूषा का, विनीतता व शक्ति का अभिलाषी हो गया है। वह शुन:शेप न रहकर 'वाम-देव' = सुन्दर दिव्य गुणोंवाला बन गया है। 

भावार्थ -

हमारे जीवन का उद्देश्य भोगसामग्री जुटाना न होकर विनीतता व शक्ति का सम्पादन हो।

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