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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 262
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣡दि꣢न्द्र꣣ ना꣡हु꣢षी꣣ष्वा꣡ ओजो꣢꣯ नृ꣣म्णं꣡ च꣢ कृ꣣ष्टि꣡षु꣢ । य꣢द्वा꣣ प꣡ञ्च꣢ क्षिती꣣नां꣢ द्यु꣣म्न꣡मा भ꣢꣯र स꣣त्रा꣡ विश्वा꣢꣯नि꣣ पौ꣡ꣳस्या꣢ ॥२६२॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣢त् । इ꣣न्द्र । ना꣡हु꣢꣯षीषु । आ । ओ꣡जः꣢꣯ । नृ꣣म्ण꣢म्꣢ । च꣣ । कृष्टि꣡षु꣢ । यत् । वा꣣ । प꣡ञ्च꣢꣯ । क्षि꣣तीना꣢म् । द्यु꣣म्नम् । आ । भ꣣र । सत्रा꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯नि । पौँ꣡स्या꣢꣯ ॥२६२॥


स्वर रहित मन्त्र

यदिन्द्र नाहुषीष्वा ओजो नृम्णं च कृष्टिषु । यद्वा पञ्च क्षितीनां द्युम्नमा भर सत्रा विश्वानि पौꣳस्या ॥२६२॥


स्वर रहित पद पाठ

यत् । इन्द्र । नाहुषीषु । आ । ओजः । नृम्णम् । च । कृष्टिषु । यत् । वा । पञ्च । क्षितीनाम् । द्युम्नम् । आ । भर । सत्रा । विश्वानि । पौँस्या ॥२६२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 262
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3;
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पदार्थ -

हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली तथा बल के सब कार्यों को करनेवाले प्रभो! (यत्) = जो (ओजः) = बल (च) = और (नृम्णम्) = धन (नाहुषीषु) = [नह् बन्धने]=आपस में मिलकर चलनेवाले (कृष्टिषु) = उत्पादक श्रमवाले मनुष्यों में होता है, उसे (आभर) = सब प्रकार से हममें भर दीजिए || (यत् वा) = और पञ्च (क्षितिनाम्) = पाँचों भूमियों-कोशों की (द्युम्नम्) = ज्योति को आभर हममें पूर्ण कर दीजिए | विश्वानि = सब (सत्रा पौंस्या) = सत्य पुरुषार्थों को हमें प्राप्त कराइए ।

‘कृष्टि’ शब्द वेद में मनुष्य का वाचक है- और यह संकेत कर रहा है कि मनुष्य को कृषिप्रधान–श्रमशील जीवनवाला होना चाहिए। साथ ही उसे केवल अपने लिए न जीकर अपने जीवन को औरों के जीवनों के साथ सम्बद्ध करना चाहिए। इसी उद्देश्य से यहाँ 'नाहुषी' विशेषण दिया गया है। पशु, पक्षी सब अपने लिए ही जीते हैं, मनुष्य का सबके साथ मिलकर चलना ही ठीक है। जो औरों के लिए जीता है, वस्तुतः वही जीता है।

जो व्यक्ति श्रमशील जीवन बिताता है वह ओज प्राप्त करता है। क्रिया नीरोगता व शक्ति देती है। क्रिया के अभाव में मनुष्य को बीमारियाँ व अशक्ति आ घेरती हैं। क्रियाशीलता उसे जीवन के लिए आवश्यक धन प्राप्त कराती है। वस्तुतः यह कृष्टि ब्रह्मचर्याश्रम में ओज प्राप्त करता है, तो गृहस्थ में धन।

वानप्रस्थ बनने पर यह अपने पाँचों कोशों को ज्योति से भरने का ध्यान करता है, क्योंकि ऐसा करके ही वह अपने संन्यासाश्रम में सफलता से सत्य पुरुषार्थों को सिद्ध कर पाएगा। इस प्रकार यह मन्त्र मानव जीवन के चारों आश्रमों के चार केन्द्रीभूत लक्ष्यों को क्रमशः ‘ओज, नृम्ण, द्युम्न व पौंस्य ' इन शब्दों से प्रकट कर रहा है।

अपने अन्दर ओज - वाज- शक्ति भरने से यह 'भरद्वाज' बनता है और ज्योति भरने से यह ‘बार्हस्पत्य' कहलाता है। इस ओज व द्युम्न से यह क्रमशः 'नृम्ण' व ‘पौंस्य' को सिद्ध करता है। अपने ओज से प्राप्त धन 'नृम्ण' है, ज्ञानपूर्वक किया हुआ पुरुषार्थ 'सत्य पौंस्य' है। 

भावार्थ -

प्रभुकृपा से हमारी जीवन-यात्रा के चारों लक्ष्य ठीक प्रकार पूर्ण हों।

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