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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 440
ऋषिः - त्रसदस्युः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
1
अ꣡न꣢वस्ते꣣ र꣢थ꣣म꣡श्वा꣢य तक्षु꣣स्त्व꣢ष्टा꣣ व꣡ज्रं꣢ पुरुहूत द्यु꣣म꣡न्त꣢म् ॥४४०॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡न꣢꣯वः । ते꣣ । र꣡थ꣢꣯म् । अ꣡श्वा꣢꣯य । त꣣क्षुः । त्व꣡ष्टा꣢꣯ । व꣡ज्र꣢꣯म् । पु꣣रुहूत । पुरु । हूत । द्युम꣡न्त꣢म् ॥४४०॥
स्वर रहित मन्त्र
अनवस्ते रथमश्वाय तक्षुस्त्वष्टा वज्रं पुरुहूत द्युमन्तम् ॥४४०॥
स्वर रहित पद पाठ
अनवः । ते । रथम् । अश्वाय । तक्षुः । त्वष्टा । वज्रम् । पुरुहूत । पुरु । हूत । द्युमन्तम् ॥४४०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 440
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 10;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 10;
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विषय - सफल जीवन
पदार्थ -
(अनव:) = मनुष्य (ते) = वे हैं जो (रथम्) = इस शरीररूपरथ को (अश्वाय) = [अश् व्याप्तौ] उस सर्वव्यापक परमात्मा के लिए (तक्षुः) = बनाते हैं। वस्तुतः मनुष्य वह है जो कि प्रेयमार्ग की चमक से न उलझकर श्रेयमार्ग का अवलम्बन करता है। प्रकृति के भोगों में न फँसकर जिसने प्रभु-प्राप्ति के मार्ग का अवलम्बन किया वही मनुष्य कहलाने के योग्य है। संसार के भोगों में उलझकर जीवन यापन कर देना पाशविक जीवन है। मनुष्य प्रभु की ओर चलता है - पशु प्रकृति की ओर।
(त्वष्टा) = निर्माता वह है जो (वज्रम्) = अपनी क्रिया को (द्युमन्तम्) = प्रकाशमय [ततक्ष] बनाता है। वस्तुतः जिस क्रिया में प्रकाश है, अर्थात् जो क्रिया विवेकपूर्वक की जाएगी वह सदा निर्माण करनेवाली होगी। हे (पूरुहूत) = पूरण करनेवाले प्रभो! मैं तो आपका निमित्तमात्र हूँ। निर्माण में गौरव है- गौरव का अनुभव करना ही चाहिए परन्तु यही गर्व में परिणत होकर हमारी विजय को पराजय में कर देता है।
भावार्थ -
हम प्रभुप्राप्ति के मार्ग पर चलकर मानवजीवन को सफल करें। प्रकाशमय क्रियावाले होकर कुछ-न-कुछ निर्माण करनेवाले हों।
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