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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 449
ऋषिः - बन्धुः सुबन्धुः श्रुतबन्धुर्विप्रबन्धुश्च क्रमेण गोपायना लौपायना वा देवता - इन्द्रः छन्दः - द्विपदा गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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भ꣢गो꣣ न꣢ चि꣣त्रो꣢ अ꣣ग्नि꣢र्म꣣हो꣢नां꣣ द꣡धा꣢ति꣣ र꣡त्न꣢म् ॥४४९

स्वर सहित पद पाठ

भ꣣गः꣢꣯ । न । चि꣣त्रः꣢ । अ꣣ग्निः꣢ । म꣣हो꣡ना꣢म् । द꣡धा꣢꣯ति । र꣡त्न꣢꣯म् ॥४४९॥


स्वर रहित मन्त्र

भगो न चित्रो अग्निर्महोनां दधाति रत्नम् ॥४४९


स्वर रहित पद पाठ

भगः । न । चित्रः । अग्निः । महोनाम् । दधाति । रत्नम् ॥४४९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 449
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 11;
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पदार्थ -

‘बन्धु' प्रभु की उपासना करता हुआ प्राणिमात्र के साथ ऐक्य का अनुभव करनेवाला 'सुबन्धु' बन जाता है और अनुभव करता है कि (अग्निः) = प्रकाश का पुञ्ज प्रभु (भगो न) = देदीप्यमान सेवनीय सूर्य की भाँति (चित्र:) = हमें ज्ञान का प्रकाश देनेवाला है। प्रभु की उपासना से उपासक का मस्तिष्करूप द्युलोक उसी प्रकार प्रकाशित हो उठता है जिस प्रकार का द्युलोक सूर्य से। वह अग्नि (महोनाम्) = [मह पूजायाम्] उपासकों के इस पार्थिव शरीर में (रत्नं दधाति) = रमणीय सप्तरत्नों को धारण करती हैं। वे ही यहाँ रत्न हैं – इनसे शरीर रमणीय बना रहता है। पृथिवी जैसे 'वसुन्धरा' है उसी प्रकार उपासक का शरीर भी रत्नों का धारण करनेवाला बनता है। इन रत्नों से शरीर दृढ़ बना रहता है।

संक्षेप मे उपासक का मस्तिष्करूप धुलोक उग्र व तेजस्वी होता है तो उसका यह पार्थिव शरीर दृढ़ होता है।

भावार्थ -

प्रभु की उपासना से मैं उग्र व दृढ़ बनूँ।

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