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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 985
ऋषिः - उरुचक्रिरात्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
1

पु꣣रूरु꣡णा꣢ चि꣣द्ध्य꣡स्त्यवो꣢꣯ नू꣣नं꣡ वां꣢ वरुण । मि꣢त्र꣣ व꣡ꣳसि꣢ वाꣳ सुम꣣ति꣢म् ॥९८५॥

स्वर सहित पद पाठ

पु꣣रूरु꣡णा꣢ । पु꣣रु । उरु꣡णा꣢ । चि꣣त् । हि꣢ । अ꣡स्ति꣢꣯ । अ꣡वः꣢꣯ । नू꣣न꣢म् । वा꣣म् । वरुण । मि꣡त्र꣢꣯ । मि । त्र꣢ । व꣡ꣳसि꣢꣯ । वा꣣म् । सुमति꣢म् । सु꣣ । मति꣢म् ॥९८५॥


स्वर रहित मन्त्र

पुरूरुणा चिद्ध्यस्त्यवो नूनं वां वरुण । मित्र वꣳसि वाꣳ सुमतिम् ॥९८५॥


स्वर रहित पद पाठ

पुरूरुणा । पुरु । उरुणा । चित् । हि । अस्ति । अवः । नूनम् । वाम् । वरुण । मित्र । मि । त्र । वꣳसि । वाम् । सुमतिम् । सु । मतिम् ॥९८५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 985
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

हे (मित्र) = प्राण तथा (वरुण) = अपान ! (वाम्) = आप दोनों का (अवः) = रक्षण (नूनम्) = निश्चय से (पुरूरुणा अस्ति) = [पुरोरपि उरु] अधिक-से-अधिक है, अर्थात् पूर्ण है— आपके रक्षण में किसी प्रकार की कमी नहीं है। इसलिए (वाम्) = आपकी (सुमतिम्) = शोभन मति को – आपके द्वारा उत्पन्न की गयी सुबुद्धि को (वंसि चित् हि) = निश्चय से प्राप्त करूँ ही ।

हमारा सम्पूर्ण रक्षण प्राणापान पर निर्भर है। शरीर की नीरोगता उन्हीं के द्वारा होती है, मन को वे ही निर्मल करनेवाले हैं और इन्हीं की साधना से बुद्धि तीव्र होती है। आचार्य दयानन्द के शब्दों में प्राणायाम से बुद्धि तीव्र होकर सूक्ष्माति-सूक्ष्म विषय का ग्रहण कर पाती है, अत: मन्त्र में प्राणापान से ‘सुमति' की आराधना की गयी है । यह सुमति ही प्राणापान की सर्वाधिक देन है । इसके मिल जाने पर मन की निर्मलता व शरीर की नीरोगता तो मिल ही जाती है । 

भावार्थ -

हम प्राणापान के रक्षण से सुमति को प्राप्त करें। ।
 

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