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ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 82/ मन्त्र 2
अस्य॒ हि स्वय॑शस्तरं सवि॒तुः कच्च॒न प्रि॒यम्। न मि॒नन्ति॑ स्व॒राज्य॑म् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअस्य॑ । हि । स्वय॑शःऽतरम् । स॒वि॒तुः । कत् । च॒न । प्रि॒यम् । न । मि॒नन्ति॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य हि स्वयशस्तरं सवितुः कच्चन प्रियम्। न मिनन्ति स्वराज्यम् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअस्य। हि। स्वयशःऽतरम्। सवितुः। कत्। चन। प्रियम्। न। मिनन्ति। स्वऽराज्यम् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 82; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
पदार्थ -
पदार्थ = ( अस्य सवितुः ) = इस जगत् उत्पादक परमेश्वर के ( स्वयशस्तरम् ) = अपने यश से फैले हुए ( प्रियम् ) = प्रेम करने योग्य ( स्वराज्यम् ) = अपने राज्य का ( कच्चन ) = कोई भी ( न मिनन्ति ) = नाश नहीं कर सकता ।
भावार्थ -
भावार्थ = सृष्टिरचना कर्ता परमेश्वर का स्वराज्य सारे संसार में फैला हुआ है और वह स्वराज्य प्रभु के बल और यश से फैला है। उसके नियम अटल हैं, और सबके प्रीति करने योग्य हैं। उस जगत्-कर्ता के सृष्टि-नियमों को और स्वराज्य को कोई नाश नहीं कर सकता । वास्तव में अविनाशी परमात्मा का स्वराज्य भी अविनश्वर है। मनुष्य तो मर्त्य अर्थात् मरणधर्मा हैं इस मनुष्य का राज्य भी नाशवान् है, कदापि अविनाशी नहीं हो सकता ।
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