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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1536
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
1

त्वं꣢ जा꣣मि꣡र्जना꣢꣯ना꣣म꣡ग्ने꣢ मि꣣त्रो꣡ अ꣢सि प्रि꣣यः꣢ । स꣢खा꣣ स꣡खि꣢भ्य꣣ ई꣡ड्यः꣢ ॥१५३६॥

स्वर सहित पद पाठ

त्वम् । जा꣣मिः꣢ । ज꣡ना꣢꣯नाम् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । अ꣣सि । प्रियः꣢ । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । स꣡खि꣢꣯भ्यः । स । खि꣣भ्यः । ई꣡ड्यः꣢꣯ ॥१५३६॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वं जामिर्जनानामग्ने मित्रो असि प्रियः । सखा सखिभ्य ईड्यः ॥१५३६॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । जामिः । जनानाम् । अग्ने । मित्रः । मि । त्रः । असि । प्रियः । सखा । स । खा । सखिभ्यः । स । खिभ्यः । ईड्यः ॥१५३६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1536
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

शब्दार्थ = (अग्ने ) =  हे ज्ञानरूप ज्ञानप्रद प्रभो ! ( त्वं जनानाम् जामिः ) = आप प्रजा जनों के बन्धु  ( प्रियः मित्रः ) = सदा प्यारे मित्र  ( सखा ) = चेतनता से समान नामवाले  ( सखिभ्यः ईड्यः असि ) = हम जो आपके सखा हैं उनसे आप सदा स्तुति के योग्य हैं । 

भावार्थ -

भावार्थ = हे दयानिधे ! आप हम सबके सच्चे बन्धु और अत्यन्त प्यार करनेवाले मित्र हैं। संसार में जितने बन्धु वा मित्र हैं, संसारी लोग जब स्वार्थ कुछ नहीं पाते, तब इनमें कोई हमारा बन्धु वा मित्र नहीं रहता । केवल एक आप ही हैं जो बिना स्वार्थ के हम पर सदा अनुग्रह करते हुए सदा बन्धु वा मित्र बने रहते हैं। इसलिए हम सबसे आप ही सदा स्तुति के योग्य हैं अन्य कोई भी नहीं ।

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