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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 32
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
1
क꣣वि꣢म꣣ग्नि꣡मुप꣢꣯ स्तुहि स꣣त्य꣡ध꣢र्माणमध्व꣣रे꣢ । दे꣣व꣡म꣢मीव꣣चा꣡त꣢नम् ॥३२॥
स्वर सहित पद पाठक꣣वि꣢म् । अ꣣ग्नि꣢म् । उ꣡प꣢꣯ । स्तु꣣हि । स꣣त्य꣡ध꣢र्माणम् । स꣣त्य꣢ । ध꣣र्माणम् । अध्वरे꣢ । दे꣣व꣢म् । अ꣣मीवचा꣡त꣢नम् । अ꣣मीव । चा꣡त꣢꣯नम् ॥३२॥
स्वर रहित मन्त्र
कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे । देवममीवचातनम् ॥३२॥
स्वर रहित पद पाठ
कविम् । अग्निम् । उप । स्तुहि । सत्यधर्माणम् । सत्य । धर्माणम् । अध्वरे । देवम् । अमीवचातनम् । अमीव । चातनम् ॥३२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 32
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 12
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 12
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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पदार्थ -
शब्दार्थ = ( कविम् ) = सर्वज्ञ ( सत्यधर्माणम् ) = सत्यधर्मी अर्थात् जिनके नियम सदा अटल हैं ( देवमू ) = सदा प्रकाशस्वरूप और सब सुखों के देनेवाले ( अमीवचातनम् ) = रोगों के विनाश करनेवाले ( अग्निम् ) = तेजोमय परमात्मा की ( अध्वरे ) = ब्रह्मयज्ञादि में ( उपस्तुहि ) = उपासना और स्तुति कर ।
भावार्थ -
भावार्थ = हे प्रभो ! जिस आप जगत्पति के नियम से बँधे हुए, पृथिवी, सूर्य्य, चन्द्र, मंगल, शुक्र, शनि, बृहस्पति आदि ग्रह, उपग्रह अपने-अपने नियम में स्थित होकर अपनी-अपनी गति से सदा घूम रहे हैं। आप जगन्नियन्ता के नियम को तोड़ने का किसी का भी सामर्थ्य नहीं। ऐसे अटल नियमवाले सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, स्वप्रकाश, सुखदायक, रोग, शोकविनाशक, आप परमात्मा की, मुमुक्षु, पुरुष श्रद्धा भक्ति से प्रेम में मग्न होकर प्रार्थना और उपासना सदा किया करें, जिससे उनका कल्याण हो ।
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