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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 388
ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣡न्द्रा꣢य꣣ सा꣡म꣢ गायत꣣ वि꣡प्रा꣢य बृह꣣ते꣢ बृ꣣ह꣢त् । ब्र꣣ह्मकृ꣡ते꣢ विप꣣श्चि꣡ते꣢ पन꣣स्य꣡वे꣢ ॥३८८॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सा꣡म꣢꣯ । गा꣣यत । वि꣡प्रा꣢꣯य । वि । प्रा꣣य । बृहते꣢ । बृ꣣ह꣢त् । ब्र꣣ह्मकृ꣡ते꣢ । ब्र꣣ह्म । कृ꣡ते꣢꣯ । वि꣣पश्चि꣡ते꣢ । वि꣣पः । चि꣡ते꣢꣯ । प꣣नस्य꣡वे꣢ ॥३८८॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्राय साम गायत विप्राय बृहते बृहत् । ब्रह्मकृते विपश्चिते पनस्यवे ॥३८८॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्राय । साम । गायत । विप्राय । वि । प्राय । बृहते । बृहत् । ब्रह्मकृते । ब्रह्म । कृते । विपश्चिते । विपः । चिते । पनस्यवे ॥३८८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 388
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4;
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पदार्थ -

शब्दार्थ = ( ब्रह्मकृते विपश्चिते ) = सब मनुष्यों के लिए वेदों को उत्पन्न करनेवाला ज्ञानस्वरूप और दान प्रदाता  ( विप्राय बृहते ) = मेधावी सर्वज्ञ और महान्  ( पनस्यवे ) = पूजनीय  ( इन्द्राय ) = परमेश्वर के लिए  ( बृहत् साम गायत ) = बड़ा साम गान करो ।

भावार्थ -

भावार्थ = हे सुज्ञ जनो! जिस दयामय जगत्पिता ने हमारे लिए धर्म आदि चार पुरुषार्थों के साधक वेदों को उत्पन्न किया, ऐसा ज्ञानस्वरूप, ज्ञानदाता, महान् जो परम पूजनीय परमात्मा है, उस प्रभु की हम अनन्य भक्ति करें। उसी जगत्पिता की कपट छलादिकों को त्याग कर वैदिक और लौकिक स्तोत्रों से बड़ी स्तुति करें, जिससे हमारा जीवन पवित्र और जगत् के उपकार करनेवाला हो । 

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