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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 846
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
1

यो꣢ अ꣣ग्निं꣢ दे꣣व꣡वी꣣तये ह꣣वि꣡ष्मा꣢ꣳ आ꣣वि꣡वा꣢सति । त꣡स्मै꣢ पावक मृडय ॥८४६॥

स्वर सहित पद पाठ

यः꣢ । अ꣣ग्नि꣢म् । दे꣣व꣡वी꣢तये । दे꣣व꣢ । वी꣡तये । हवि꣡ष्मा꣢न् । आ꣣वि꣡वा꣢सति । आ꣣ । वि꣡वा꣢꣯सति । त꣡स्मै꣢꣯ । पा꣣वक । मृडय ॥८४६॥


स्वर रहित मन्त्र

यो अग्निं देववीतये हविष्माꣳ आविवासति । तस्मै पावक मृडय ॥८४६॥


स्वर रहित पद पाठ

यः । अग्निम् । देववीतये । देव । वीतये । हविष्मान् । आविवासति । आ । विवासति । तस्मै । पावक । मृडय ॥८४६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 846
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

शब्दार्थ = ( यः ) = जो  ( हविष्मान् ) = प्रेम भक्ति रूपी हविवाला उपासक पुरुष  ( देववीतये ) = अपनी दिव्य गति के लिए  ( अग्निम् ) = ज्ञानस्वरूप परमात्मा का  ( आविवासति ) = उपासना रूपी पूजन करता है  ( तस्मै ) = उसके लिए  ( पावक ) =  हे अपवित्रों को भी पवित्र करनेवाले परमात्मन् ! ( मृडय ) = आनन्द दीजिये।

भावार्थ -

भावार्थ = हे पावक ! पवित्र स्वरूप, पवित्र करनेवाले परमेश्वर ! जो उपासक पुरुष सत्कर्मों को करता हुआ आपका प्रेमपूर्वक उपासनारूप पूजन करता है ऐस अपने प्यारे उपासक को आप, दिव्यगति मुक्ति देकर सदा आनन्द दीजिए।

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