ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 100/ मन्त्र 1
इन्द्र॒ दृह्य॑ मघव॒न्त्वाव॒दिद्भु॒ज इ॒ह स्तु॒तः सु॑त॒पा बो॑धि नो वृ॒धे । दे॒वेभि॑र्नः सवि॒ता प्राव॑तु श्रु॒तमा स॒र्वता॑ति॒मदि॑तिं वृणीमहे ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । दृह्य॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । त्वाऽव॑त् । इत् । भु॒जे । इ॒ह । स्तु॒तः । सु॒त॒ऽपाः । बो॒धि॒ । नः॒ । वृ॒धे । दे॒वेभिः॑ । नः॒ । स॒वि॒ता । प्र । अ॒व॒तु॒ । श्रु॒तम् । आ । स॒र्वऽता॑तिम् । अदि॑तिम् । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र दृह्य मघवन्त्वावदिद्भुज इह स्तुतः सुतपा बोधि नो वृधे । देवेभिर्नः सविता प्रावतु श्रुतमा सर्वतातिमदितिं वृणीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । दृह्य । मघऽवन् । त्वाऽवत् । इत् । भुजे । इह । स्तुतः । सुतऽपाः । बोधि । नः । वृधे । देवेभिः । नः । सविता । प्र । अवतु । श्रुतम् । आ । सर्वऽतातिम् । अदितिम् । वृणीमहे ॥ १०.१००.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 100; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में परमात्मा स्तुतिकर्त्ताओं के आयु, सम्पत्ति, श्रेष्ठ गुणों को बढ़ाता है, पाप दूर करता है, मन को प्रसन्न करता है, इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ -
(मघवन्-इन्द्र) हे सब प्रकार के धनवाले परमात्मन् ! (त्वावत्-दृह्य-इत्) तेरे सदृश चेतन अपने उपासक आत्मा को बढ़ा, उन्नत कर (भुजे) सुखभोग के लिए (इह स्तुतः) इस जीवन में उपासित हुआ (सुतपाः) उपासनारस का पानकर्त्ता (नः-वृधे) हमारी वृद्धि के लिए (सविता) तू उत्पादक परमात्मा (देवेभिः) इन्द्रियों द्वारा (नः श्रुतम्) हमारे सुने ज्ञान को (प्र अवतु) सुरक्षित रख, उसकी सुरक्षा कर (सर्वतातिम्-अदितिम्-आ वृणीमहे) सब जगत् के विस्तारक अनश्वर तुझ देव को भलीभाँति वरें-स्वीकार करें-मानें ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा समस्त धन ऐश्वर्यों का स्वामी है, वह उपासक आत्मा को सुखभोग के लिए बढ़ाता है और श्रवण किये ज्ञान की रक्षा करता है, उस जगद्विस्तारक अनश्वर परमात्मा को अपनाना मानना चाहिये ॥१॥
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