ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 106/ मन्त्र 1
उ॒भा उ॑ नू॒नं तदिद॑र्थयेथे॒ वि त॑न्वाथे॒ धियो॒ वस्त्रा॒पसे॑व । स॒ध्री॒ची॒ना यात॑वे॒ प्रेम॑जीगः सु॒दिने॑व॒ पृक्ष॒ आ तं॑सयेथे ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒भौ । ऊँ॒ इति॑ । नू॒नम् । तत् । इत् । अ॒र्थ॒ये॒थे॒ इति॑ । वि । त॒न्वा॒थे॒ इति॑ । धियः॑ । वस्त्रा॑ । अ॒पसा॑ऽइव । स॒ध्री॒ची॒ना । यात॑वे । प्र । ई॒म् । अ॒जी॒ग॒रिति॑ । सु॒दिना॑ऽइव । पृक्षः॑ । आ । तं॒स॒ये॒थे॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उभा उ नूनं तदिदर्थयेथे वि तन्वाथे धियो वस्त्रापसेव । सध्रीचीना यातवे प्रेमजीगः सुदिनेव पृक्ष आ तंसयेथे ॥
स्वर रहित पद पाठउभौ । ऊँ इति । नूनम् । तत् । इत् । अर्थयेथे इति । वि । तन्वाथे इति । धियः । वस्त्रा । अपसाऽइव । सध्रीचीना । यातवे । प्र । ईम् । अजीगरिति । सुदिनाऽइव । पृक्षः । आ । तंसयेथे इति ॥ १०.१०६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 106; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में सुशिक्षित स्त्री-पुरुष, अध्यापक-उपदेशक मानवों का कल्याण साधें, ओषधिचिकित्सक-शल्यचिकित्सक स्वास्थ्य बढ़ावें, सभा व सेना के स्वामी राष्ट्र में अन्नव्यवस्था ठीक रखें, इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ -
(उभा-उ) दोनों सुशिक्षित स्त्री-पुरुष या अध्यापक-उपदेशक (तत्-इत्) उस ही ब्रह्म की (प्र-अर्थयेथे) प्रार्थना करते हैं, जिसकी प्राप्ति के लिए (धियः) कर्मों का (वि तन्वाथे) विस्तार करते हैं (अपसा-इव-वसा) कर्म करनेवाले दो शिल्पी वस्त्र बुननेवाले जैसे वस्त्र बुनते हैं (सध्रीचीना) साथ जाते हुए गृहस्थकार्य में या विद्याप्रचार में (यातवे) यात्रा के लिए जाते हुए (ईम्-प्र-अजीगः) उस ब्रह्म की-प्रत्येक स्तुति करे अथवा परस्पर प्रशंसा करे (सुदिना-इव) सुन्दर दिनों में (पृक्षः) अन्न को या विज्ञान को (आ तंसयेथे) भलीभाँति संस्कृत करते हैं ॥१॥
भावार्थ - सुशिक्षित स्त्री-पुरुष गृहस्थ में या अध्यापक-उपदेशक विद्याप्रचार में लगे हुए संतानों या शिष्यों का विस्तार करते हुए भोजन या ज्ञान को संस्कृत करते हुए यात्रा करते हुए भी परमात्मा की स्तुति प्रार्थना करते रहें ॥१॥
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