ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 37/ मन्त्र 11
अ॒स्माकं॑ देवा उ॒भया॑य॒ जन्म॑ने॒ शर्म॑ यच्छत द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे । अ॒दत्पिब॑दू॒र्जय॑मान॒माशि॑तं॒ तद॒स्मे शं योर॑र॒पो द॑धातन ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्माक॑म् । दे॒वाः॒ । उ॒भया॑य । जन्म॑ने । शर्म॑ । य॒च्छ॒त॒ । द्वि॒ऽपदे॑ । चतुः॑ऽपदे । अ॒दत् । पिब॑त् । ऊ॒र्जय॑मानम् । आशि॑तम् । तत् । अ॒स्मे इति॑ । शम् । योः । अ॒र॒पः । द॒धा॒त॒न॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्माकं देवा उभयाय जन्मने शर्म यच्छत द्विपदे चतुष्पदे । अदत्पिबदूर्जयमानमाशितं तदस्मे शं योररपो दधातन ॥
स्वर रहित पद पाठअस्माकम् । देवाः । उभयाय । जन्मने । शर्म । यच्छत । द्विऽपदे । चतुःऽपदे । अदत् । पिबत् । ऊर्जयमानम् । आशितम् । तत् । अस्मे इति । शम् । योः । अरपः । दधातन ॥ १०.३७.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 37; मन्त्र » 11
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
पदार्थ -
(देवाः) हे जीवन्मुक्त ! या विद्वान् लोगों ! (अस्माकम्-उभयाय जन्मने) हमारे से सम्बन्ध रखनेवाले दोनों प्रकार के जन्मधारण करनेवाले (द्विपदे चतुष्पदे शर्म यच्छत) दो पैरोंवाले-मनुष्य और चार पैरोंवाले-पशुओं के लिए सुख प्रदान करो (तत् अदत् पिबत्-ऊर्जयमानम्-आशितम्) वह प्रत्येक गण खाता और पीता हुआ तथा भली प्रकार से भोग प्राप्त करता हुआ बलवान् हो (अस्मे-अरपः-शंयोः दधातन) हमारे लिए पापरहित सुख को धारण करो-प्रदान करो ॥११॥
भावार्थ - जीवन्मुक्त, परमात्मा की उपासना करनेवाले अपने सत्योपदेश के द्वारा हमें और हमारे पशुओं के लिए हित साधते हैं और निर्दोष सुख को प्राप्त कराते हैं। एवं सूर्य की किरणें और उनके जाननेवाले विद्वान् भी हमें और हमारे पशुओं को उत्तम जीवन प्रदान करते हैं ॥११॥
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