ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 37/ मन्त्र 9
यस्य॑ ते॒ विश्वा॒ भुव॑नानि के॒तुना॒ प्र चेर॑ते॒ नि च॑ वि॒शन्ते॑ अ॒क्तुभि॑: । अ॒ना॒गा॒स्त्वेन॑ हरिकेश सू॒र्याह्ना॑ह्ना नो॒ वस्य॑सावस्य॒सोदि॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । ते॒ । विश्वा॑ । भुव॑नानि । के॒तुना॑ । प्र । च॒ । ईर॑ते । नि । च॒ । वि॒शन्ते॑ । अ॒क्तुऽभिः॑ । अ॒ना॒गाः॒ऽत्वेन॑ । ह॒रि॒ऽके॒श॒ । सू॒र्य॒ । अह्ना॑ऽअह्ना । नः॒ । वस्य॑साऽवस्यसा । उत् । इ॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य ते विश्वा भुवनानि केतुना प्र चेरते नि च विशन्ते अक्तुभि: । अनागास्त्वेन हरिकेश सूर्याह्नाह्ना नो वस्यसावस्यसोदिहि ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । ते । विश्वा । भुवनानि । केतुना । प्र । च । ईरते । नि । च । विशन्ते । अक्तुऽभिः । अनागाःऽत्वेन । हरिऽकेश । सूर्य । अह्नाऽअह्ना । नः । वस्यसाऽवस्यसा । उत् । इहि ॥ १०.३७.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 37; मन्त्र » 9
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
पदार्थ -
(सूर्य) हे जगत्प्रकाशक परमात्मन् ! या सूर्य (यस्य ते) जिस तेरे (केतुना) प्रज्ञान-ज्ञानप्रेरक या प्रकाशप्रेरक स्वरूप से (विश्वा भुवनानि) समस्त भूत-प्राणी (प्र-ईरते च) गति करते हैं-व्यवहार करते हैं (अक्तुभिः-निविशन्ते च) तथा रात्रियों में सोते-विश्राम करते हैं (हरिकेश) हे अज्ञानहरणशील, ज्ञानरश्मिवाले परमात्मा ! या अन्धकार-हरणशील तेज रश्मिवाले सूर्य ! (अनागास्त्वेन) अपापभाव से या सर्वत्रगतिप्रवर्तन से (अह्ना-अह्ना) प्रत्येक दिन (नः) हमारे प्रति (वस्यसा-वस्यसा) अत्यन्त श्रेयस्साधक धर्म से (उत् इहि) साक्षात् हो या उदय को प्राप्त हो ॥९॥
भावार्थ - परमात्मा के द्वारा दिये ज्ञान से मनुष्य अपना व्यवहार करते हैं पुनः रात्रि में विश्राम पाते हैं। उसके द्वारा दिये ज्ञान से निष्पाप होकर उसका साक्षात् करते हैं एवं सूर्य के प्रकाश से सारे प्राणी दिन का व्यवहार करके रात्रि में विश्राम करते हैं ॥९॥
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