ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 38/ मन्त्र 1
अ॒स्मिन्न॑ इन्द्र पृत्सु॒तौ यश॑स्वति॒ शिमी॑वति॒ क्रन्द॑सि॒ प्राव॑ सा॒तये॑ । यत्र॒ गोषा॑ता धृषि॒तेषु॑ खा॒दिषु॒ विष्व॒क्पत॑न्ति दि॒द्यवो॑ नृ॒षाह्ये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मिन् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । पृ॒त्सु॒तौ । यश॑स्वति । शिमी॑ऽवति । क्रन्द॑सि । प्र । अ॒व॒ । सा॒तये॑ । यत्र॑ । गोऽसा॑ता । धृ॒षि॒तेषु॑ । खा॒दिषु॑ । विष्व॑क् । पत॑न्ति । दि॒द्यवः॑ । नृ॒ऽसह्ये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मिन्न इन्द्र पृत्सुतौ यशस्वति शिमीवति क्रन्दसि प्राव सातये । यत्र गोषाता धृषितेषु खादिषु विष्वक्पतन्ति दिद्यवो नृषाह्ये ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मिन् । नः । इन्द्र । पृत्सुतौ । यशस्वति । शिमीऽवति । क्रन्दसि । प्र । अव । सातये । यत्र । गोऽसाता । धृषितेषु । खादिषु । विष्वक् । पतन्ति । दिद्यवः । नृऽसह्ये ॥ १०.३८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 38; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में इन्द्र शब्द से राजा और उसके द्वारा संग्राम करने और प्रजारक्षण के गुण धर्म साधनों का वर्णन है।
पदार्थ -
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् राजन् ! (अस्मिन् पृत्सुतौ) इस संघर्ष में (यशस्वति शिमीवति) यशवाले तथा बहुत पुरुषार्थवाले संग्राम में (सातये नः-प्र-अव) विजयलाभ के लिए हमारी रक्षा कर (यत्र गोषाता) जिसमें राष्ट्रभूमि की प्राप्ति और रक्षा के निमित्त (नृषाह्ये) मनुष्यों द्वारा सहन करने योग्य (धृषितेषु खादिषु) कठोर तथा परस्पर भक्षण करनेवाले योद्धाओं में (दिद्यवः पतन्ति) तीक्ष्ण धारवाले बाण गिरते हैं-चलते हैं ॥१॥
भावार्थ - राजा अपने मनुष्यों व प्रजाओं की रक्षा के लिए संग्राम में नाशकारी शत्रु सैनिकों के ऊपर तीक्ष्ण शस्त्रों का प्रयोग करे ॥१॥
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