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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 38/ मन्त्र 4
    ऋषिः - इन्द्रो मुष्कवान् देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    यो द॒भ्रेभि॒र्हव्यो॒ यश्च॒ भूरि॑भि॒र्यो अ॒भीके॑ वरिवो॒विन्नृ॒षाह्ये॑ । तं वि॑खा॒दे सस्नि॑म॒द्य श्रु॒तं नर॑म॒र्वाञ्च॒मिन्द्र॒मव॑से करामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । द॒भ्रेभिः । हव्यः॑ । यः । च॒ । भूरि॑ऽभिः । यः । अ॒भीके॑ । व॒रि॒वः॒ऽवित् । नृ॒ऽसह्ये॑ । तम् । वि॒ऽखा॒दे । सस्नि॑म् । अ॒द्य । श्रु॒तम् । नर॑म् । अ॒र्वाञ्च॑म् । इन्द्र॑म् । अव॑से । क॒रा॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो दभ्रेभिर्हव्यो यश्च भूरिभिर्यो अभीके वरिवोविन्नृषाह्ये । तं विखादे सस्निमद्य श्रुतं नरमर्वाञ्चमिन्द्रमवसे करामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । दभ्रेभिः । हव्यः । यः । च । भूरिऽभिः । यः । अभीके । वरिवःऽवित् । नृऽसह्ये । तम् । विऽखादे । सस्निम् । अद्य । श्रुतम् । नरम् । अर्वाञ्चम् । इन्द्रम् । अवसे । करामहे ॥ १०.३८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 38; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (अभीके) संग्राम में (यः) जो ऐश्वर्यवान् राजा (दभ्रेभिः) थोड़े सैनिकों द्वारा (यः-च भूरिभिः) और जो बहुत सैनिकजनों से (हव्यः) आह्वान करने योग्य-आश्रयणीय है (यः वरिवः-वित्) जो संग्रामसम्बन्धी साधनों को जाननेवाला (नृषह्यः) नरों को स्ववश करनेवाला है, (तं सस्निं श्रुतं नरम्-इन्द्रम्) उस निर्दोष निर्बलतारहित शौर्य में प्रसिद्ध नेता राजा को (विखादे) विविधरूप से खाये जाते नष्ट होते हैं योद्धाजन जिसमें, ऐसे संग्राम में (अद्य) वर्त्तमान संग्रामकाल में (अवसे) रक्षा के लिए (अर्वाञ्चं करामहे) अग्रणायक रूप में वरण करें-बनावें ॥४॥

    भावार्थ - प्रजाजनों को ऐसा राजा बनाना चाहिए, जो संग्राम के सब साधनों और विजय के प्रकारों को जानता हो। जो बहुत क्या, थोड़े से सेनिकों द्वारा भी विजय करने में समर्थ हो ॥४॥

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