Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 87 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 3
    ऋषिः - पायुः देवता - अग्नी रक्षोहा छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒भोभ॑यावि॒न्नुप॑ धेहि॒ दंष्ट्रा॑ हिं॒स्रः शिशा॒नोऽव॑रं॒ परं॑ च । उ॒तान्तरि॑क्षे॒ परि॑ याहि राज॒ञ्जम्भै॒: सं धे॑ह्य॒भि या॑तु॒धाना॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒भा । उ॒भ॒या॒वि॒न् । उप॑ । धे॒हि॒ । दंष्ट्रा॑ । हिं॒स्रः । शिशा॑नः । अव॑रम् । पर॑म् । च॒ । उ॒त । अ॒न्तरि॑क्षे । परि॑ । या॒हि॒ रा॒ज॒न् । जम्भैः॑ । सम् । धे॒हि॒ । अ॒भि । या॒तु॒ऽधाना॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभोभयाविन्नुप धेहि दंष्ट्रा हिंस्रः शिशानोऽवरं परं च । उतान्तरिक्षे परि याहि राजञ्जम्भै: सं धेह्यभि यातुधानान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उभा । उभयाविन् । उप । धेहि । दंष्ट्रा । हिंस्रः । शिशानः । अवरम् । परम् । च । उत । अन्तरिक्षे । परि । याहि राजन् । जम्भैः । सम् । धेहि । अभि । यातुऽधानान् ॥ १०.८७.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे (उभयाविन्) दोनों प्रकार के शस्त्रास्त्रों और बलों से युक्त ! तू (उभा) दोनों प्रकार की (दंष्ट्रा) नाशकारिणी शक्तियों को दोनों डाढ़ों के समान (शिशानः) अति तीक्ष्ण करता हुआ, (हिंस्रः) शत्रुओं को नाश करने हारा होकर (अवरम् परं च उप धेहि) समीप और दूर के दोनों देशों वा जनों को प्रतिष्ठित कर (उत) और हे (राजन्) तेजस्विन् ! तू (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष मार्ग में भी (परि याहि) सब दूर जा। और (जम्भैः) नाशकारी, हिंसक शस्त्रास्त्रों से (यातु-धानान्) प्रजा को पीड़ा देने वाले दुष्ट पुरुषों को (सं धेहि अभि धेहि) अच्छी प्रकार संधान कर, उनको शस्त्रों से पीड़ित कर उनका अभिधान कर, सब ओर से बांध। शस्त्रास्त्रों से संधान उनको दबा कर सन्धि या मेल करना है, जैसे—‘शरसंधान’। ‘अभिधान’-बांधने अर्थ में आता है जैसे— ‘अश्वाभिधानी’ घोड़े को बांधने की रस्सी। अर्थात् राजा शस्त्रों को समक्ष रख कर दुष्टों से संधि और विग्रह करे, जिससे वे भयभीत होकर प्रजा को पीड़ित न कर सकें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top