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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 154
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः, वामदेवो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
1
सो꣡मः꣢ पू꣣षा꣡ च꣢ चेततु꣣र्वि꣡श्वा꣢साꣳ सुक्षिती꣣ना꣢म् । दे꣣वत्रा꣢ र꣣꣬थ्यो꣢꣯र्हि꣣ता꣢ ॥१५४
स्वर सहित पद पाठसो꣡मः꣢꣯ । पू꣣षा꣢ । च꣣ । चेततुः । वि꣡श्वा꣢꣯साम् । सु꣣क्षितीना꣢म् । सु꣣ । क्षितीना꣢म् । दे꣣वत्रा꣢ । र꣣थ्योः꣢꣯ । हि꣣ता꣢ ॥१५४॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमः पूषा च चेततुर्विश्वासाꣳ सुक्षितीनाम् । देवत्रा रथ्योर्हिता ॥१५४
स्वर रहित पद पाठ
सोमः । पूषा । च । चेततुः । विश्वासाम् । सुक्षितीनाम् । सु । क्षितीनाम् । देवत्रा । रथ्योः । हिता ॥१५४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 154
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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विषय - "Missing"
भावार्थ -
भा० = ( सोमः ) = सबका प्रेरक और सबका उत्पादक और ( पूषा ) = सबका पोषण करने हारा परमात्मा ( देवत्रा ) = समस्त देव, पांचों भूतों और भौतिक शक्तियों में और आत्मा देहस्थ इन्द्रियों में व्यापक है और वही ( विश्वासां सुक्षितीनाम् ) = समस्त निवास योग्य भूतों, दुनियाओं और समस्त प्राणियोनियों के ( रथ्योः ) = दोनों प्रकार के कर्म और भोग योनियों के ( हिता ) = हितकारी होते हुए ( चेततुः ) = आहार व्यवहार का ज्ञान कराते हैं, एवं सन्मार्ग पर चलने के लिये चेताते हैं ।
दो ही मार्ग से ज्ञान प्राप्त होता है एक उपदेश से, दूसरी आवश्यकता या निज अनुभव से परमात्मा प्राणियों को एक तो सोम अर्थात् ज्ञानवान् परम गुरु के रूप में ऋषियों के हृदय में ज्ञान प्रेरित करता है। दूसरा पूषा अर्थात् प्राणी शरीर की आवश्यकता भूख प्यास आदि से प्रेरित होकर पदार्थों को खोजते हैं और निजी अनुभव से अपने हित अहित का ज्ञान करते हैं । ईश्वर दोनों रूप से उनको ज्ञान देरहा है। जैसे रोटी के टुकड़े
से कुत्ते को सघाते हैं उसी प्रकार ईश्वर भी अन्नादि की वासना से पृथ्वी पर अन्नादि रखकर प्राणियों को उसके खोजने और प्राप्त करने के मार्ग में सधाता है। जीव भी कर्म फल, सुख दुःख भोग २ कर पुनः ज्ञानमार्ग आजाते हैं। जीवों के भोगों की व्यवस्था करने वाला वह 'पूषा' है। विद्वानों के हृदय में ज्ञान प्रेरणा करने और सबको उत्पन्न करने से वह 'सोम' है। दो भिन्न २ व्यवस्थाओं के भिन्न २ रूप पृथक् २ दर्शाने के निमित्त द्विवचन का प्रयोग है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
ऋषिः - शुनःशेप: वामदेवो वा।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
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