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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 31
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
1
उ꣢दु꣣ त्यं꣢ जा꣣त꣡वे꣢दसं दे꣣वं꣡ व꣢हन्ति के꣣त꣡वः꣢ । दृ꣣शे꣡ विश्वा꣢꣯य꣣ सू꣡र्य꣢म् ॥३१॥
स्वर सहित पद पाठउ꣢त् । उ꣣ । त्य꣢म् । जा꣣त꣡वे꣢दसम् । जा꣣त꣢ । वे꣣दसम् । देव꣢म् । व꣣हन्ति । केत꣡वः꣢ । दृ꣣शे꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯य । सू꣡र्य꣢꣯म् ॥३१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः । दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥३१॥
स्वर रहित पद पाठ
उत् । उ । त्यम् । जातवेदसम् । जात । वेदसम् । देवम् । वहन्ति । केतवः । दृशे । विश्वाय । सूर्यम् ॥३१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 31
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 11
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 11
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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विषय - परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ -
भा० = ( केतवः१ ) = ज्ञान करने, करानेवाले रश्मियों के समान प्रज्ञाएं या विद्वान्गण ( सूर्यम् ) = सूर्य के समान प्रकाशमान, समस्त संसार के उत्पादक उस सविता, ( जातवेदसे ) = सब पदार्थों के जाननेहारे या वेदों के मूलकारण ( त्यं उ ) = उस ( देवं ) = परमात्मा देव को ही ( उद् वहन्ति ) = धारण करते हैं कि ( विश्वाय ) = समस्त संसार उसको ( दृशे ) = देख ले, जान ले ।
सब विद्वान् उसे ज्ञान का मूलकारण और सब प्राणियों का प्रेरक सबसे ऊपर बतलाते हैं कि सब उसको जानलें और उसके दिये ज्ञान से स्वयं भी सब कार्य व्यवहारों को जानें ।
टिप्पणी -
१. केतुरिति प्रज्ञानाम | नि०३ | ९ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
ऋषि: - कण्व :।
छन्दः - गायत्री।