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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 13
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रादिती छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अव॑र्त्या॒ शुन॑ आ॒न्त्राणि॑ पेचे॒ न दे॒वेषु॑ विविदे मर्डि॒तार॑म्। अप॑श्यं जा॒यामम॑हीयमाना॒मधा॑ मे श्ये॒नो मध्वा ज॑भार ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑र्त्या । शुनः॑ । आ॒न्त्राणि॑ । पे॒चे॒ । न । दे॒वेषु॑ । वि॒वि॒दे॒ । म॒र्डि॒तार॑म् । अप॑श्यम् । जा॒याम् । अम॑हीयमानाम् । अध॑ । मे॒ । श्ये॒नः । मधु॑ । आ । ज॒भा॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवर्त्या शुन आन्त्राणि पेचे न देवेषु विविदे मर्डितारम्। अपश्यं जायाममहीयमानामधा मे श्येनो मध्वा जभार ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवर्त्या। शुनः। आन्त्राणि। पेचे। न। देवेषु। विविदे। मर्डितारम्। अपश्यम्। जायाम्। अमहीयमानाम्। अध। मे। श्येनः। मधु। आ। जभार ॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 13
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    अध्यात्मदर्शी कहता है (अवर्त्या) जन्म मरण के व्यापार से रहित होकर मैं (शुनः) सुखस्वरूप होकर अथवा (अवर्त्या) पुनः इस संसार में न होने के निमित्त से ही (शुनः) शुख कर परमेश्वर के (आन्त्राणि) ज्ञान कराने वाले गुह्य साधनों को (पेचे) परिपक्व करूं। (देवेषु) पृथिवी सूर्यादि एवं विषय के अभिलाषी इन्द्रियों के बीच में मैं (मर्डितारम्) किसी को भी परम सुख देने वाला (न विविदे) नहीं पाता हूं । अथवा मैं अज्ञानी पुरुष (अवर्त्या) लाचार, अगतिक होकर (शुनः) कुत्ते के समान लोभी आत्मा के (आन्त्राणि) भीतरी आतों के तुल्य इन (आन्त्राणि) ज्ञान साधन इन्द्रियों को ही (पेचे) परिपक्व किया उन को तपः-साधना से वश किया और उन (देवेषु) विषयाभिलाषुक प्राणों में से एक को भी सुखप्रद नहीं पाया अनन्तर (जायाम्) इस संसार उत्पन्न करने वाली प्रकृति को भी मैंने (अमहीयमाना) महती परमेश्वरी शक्ति के तुल्य नहीं (अपश्यम्) देखा । इतना ज्ञान कर लेने के अनन्तर (श्येनः) ज्ञानस्वरूप प्रभु परमेश्वर (मे) मुझे (मधु) परम मधुर ब्रह्मज्ञान (आजभार) प्रदान करता है । (२) राज्यपक्ष में—मैं प्रजाजन जब (अवर्त्या) दारिद्रय प्रेरित होकर कुत्ते के भी आतों का पकाता हूं और प्रमादी लोगों में किसी को भी सुखप्रद नहीं पाता, अपनी स्त्रियों तक की दुर्दशा होती देखूं उस समय (श्येनः) वाज़ के समान वीर पुरुष मेरी रक्षार्थ (मधु) उत्तम अन्न और शत्रुपीड़क बल प्राप्त करावे । इति षड्विंशो वर्गः ॥ इति पञ्चमोऽध्यायः ॥ अथ षष्ठोऽध्यायः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः । इन्द्रादिती देवत ॥ छन्द:– १, ८, १२ त्रिष्टुप । ५, ६, ७, ९, १०, ११ निचात्त्रष्टुप् । २ पक्तः । ३, ४ भुरिक् पंक्ति: । १३ स्वराट् पक्तिः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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