ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 5
अ॒भि प्र द॑द्रु॒र्जन॑यो॒ न गर्भं॒ रथा॑इव॒ प्र य॑युः सा॒कमद्र॑यः। अत॑र्पयो वि॒सृत॑ उ॒ब्ज ऊ॒र्मीन्त्वं वृ॒ताँ अ॑रिणा इन्द्र॒ सिन्धू॑न् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । प्र । द॒द्रुः॒ । जन॑यः । न । गर्भ॑म् । रथाः॑ऽइव । प्र । य॒युः॒ । सा॒कम् । अद्र॑यः । अत॑र्पयः । वि॒ऽसृतः॑ । उ॒ब्जः । ऊ॒र्मीन् । त्वम् । वृ॒तान् । अ॒रि॒णाः॒ । इ॒न्द्र॒ । सिन्धू॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि प्र दद्रुर्जनयो न गर्भं रथाइव प्र ययुः साकमद्रयः। अतर्पयो विसृत उब्ज ऊर्मीन्त्वं वृताँ अरिणा इन्द्र सिन्धून् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठअभि। प्र। दद्रुः। जनयः। न। गर्भम्। रथाःऽइव। प्र। ययुः। साकम्। अद्रयः। अतर्पयः। विऽसृतः। उब्जः। ऊर्मीन्। त्वम्। वृतान्। अरिणाः। इन्द्र। सिन्धून् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
विषय - राजा प्रजा, सैन्यादि के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) शत्रुहन्ताः ! (जनये गर्भं न) पुत्र को उत्पन्न, करने वाली स्त्रियें जिस प्रकार अपने गर्भ से उत्पन्न बालक को लेने के लिये वेग से आगे बढ़ती हैं उसी प्रकार (जनयः) युद्ध के करने वाले (गर्भम् अभि प्रदद्रुः) मुख्य पद ग्रहण करने वाले, सैन्यों की वागडोर संभालने वाले को लक्ष्य करके आगे की ओर बढ़ें। और (रथा इव) रथों के समान वे (अद्रयः) अभेद्य एवं विशाल शस्त्रधर पुरुष (साकं) एक साथ (प्रययुः) प्रयाण करें । हे राजन् तू (विसृतः) विविध मार्गों वा प्रकारों से चलने वाली सेनाओं वा प्रजाओं को (अतर्पयः) अन्न वेतनादि से तृप्त कर । तू (उर्म्मीन्) ऊपर को उठने वाले वा प्रतिपक्ष को उखाड़ वाले लोगों को (उब्ज) नमा, नीचा कर । (त्वं) तू (वृतान्) स्वीकार किये गये (सिन्धून्) महानदों के समान लम्बे शत्रु सैन्यों को (अरिणाः) नाश कर और अपने सैन्यों को सन्मार्ग पर चला । अथवा (विसृतः तर्पय) विविध छोटे नालों को जल से मेघों के तुल्य पूर्ण कर । धीरे जल प्रवाह नहर आदि को चला । इति प्रथमो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ६ निचृत्त्रिष्टुप ३, ५, ८ त्रिष्टुप्। ४, ६ भुरिक् पंक्तिः। ७, १० पंक्तिः । ११ निचृतपंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
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