ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
क॒था म॒हाम॑वृध॒त्कस्य॒ होतु॑र्य॒ज्ञं जु॑षा॒णो अ॒भि सोम॒मूधः॑। पिब॑न्नुशा॒नो जु॒षमा॑णो॒ अन्धो॑ वव॒क्ष ऋ॒ष्वः शु॑च॒ते धना॑य ॥१॥
स्वर सहित पद पाठक॒था । म॒हाम् । अ॒वृ॒ध॒त् । कस्य॑ । होतुः॑ । य॒ज्ञम् । जु॒षा॒णः । अ॒भि । सोम॑म् । ऊधः॑ । पिब॑न् । उ॒शा॒नः । जु॒षमा॑णः । अन्धः॑ । व॒व॒क्षे । ऋ॒ष्वः । शु॒च॒ते । धना॑य ॥
स्वर रहित मन्त्र
कथा महामवृधत्कस्य होतुर्यज्ञं जुषाणो अभि सोममूधः। पिबन्नुशानो जुषमाणो अन्धो ववक्ष ऋष्वः शुचते धनाय ॥१॥
स्वर रहित पद पाठकथा। महाम्। अवृधत्। कस्य। होतुः। यज्ञम्। जुषाणः। अभि। सोमम्। ऊधः। पिबन्। उशानः। जुषमाणः। अन्धः। ववक्षे। ऋष्वः। शुचते। धनाय ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
विषय - राजा और आचार्य के सम्बन्ध में नाना ज्ञातव्य बातें प्रजा वा शिष्य को उपदेश ।
भावार्थ -
(कस्य होतुः) किस ज्ञान और धनादि देने वाले दानशील महापुरुष के (महान्) बड़े भारी (यज्ञं) सत्संग, मैत्रीभाव, उत्तम दान को (जुषाणः) प्रेमपूर्वक सेवन करता हुआ (कथा) किस प्रकार (अवृधत्) बढ़े ? उत्तर—जैसे (ऊधः पिबन्) स्तनपान करता हुआ बालक बढ़ता है उसी प्रकार (सोमम् अभि पिबन्) सब तरफ़ से ‘सोम’ शान्तिदायक ऐश्वर्य वा ओषधिरस और ज्ञान को पान करता हुआ बढ़े। वह (उशानः) ज्ञान ऐश्वर्यादि की कामना करता हुआ और (जुषमाणः) प्रेमपूर्वक सेवन करता हुआ (ऋष्वः) महान् होकर (अन्धः) उत्तम प्राण धारक अन्न को धारण करे । (शुचते धनाय) आत्मा को पवित्र करने वाले शुद्ध धन को प्राप्त करने के लिये (ववक्षे) ज्ञान का प्रवचन करे वा धनादि को प्राप्त करे । (२) इसी प्रकार इन्द्र, आचार्य (सोमं अभि पिबन्) शिष्य का सब प्रकार से पालन करता हुआ श्रद्धादि से प्राप्त पवित्र धनादि के निमित्त ज्ञान का प्रवचन करे ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः ॥ १–७, ११ इन्द्रः । ८, १० इन्द्र ऋतदेवो वा देवता॥ छन्द:– १, २, ३, ७, ८, ६,२ त्रिष्टुप् । ४, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ६ भुरिक् पंक्ति: । ११ निचृत्पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
इस भाष्य को एडिट करें