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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - दधिक्रावा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    द॒धि॒क्राव्ण॒ इदु॒ नु च॑र्किराम॒ विश्वा॒ इन्मामु॒षसः॑ सूदयन्तु। अ॒पाम॒ग्नेरु॒षसः॒ सूर्य॑स्य॒ बृह॒स्पते॑राङ्गिर॒सस्य॑ जि॒ष्णोः ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒धि॒ऽक्राव्णः॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । नु । चा॒र्कि॒रा॒म॒ । विश्वा॑ । इत् । माम् । उ॒षसः॑ । सू॒द॒य॒न्तु॒ । अ॒पाम् । अ॒ग्नेः । उ॒षसः॑ । सूर्य॑स्य । बृह॒स्पतेः॑ । आ॒ङ्गि॒र॒सस्य॑ । जि॒ष्णोः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दधिक्राव्ण इदु नु चर्किराम विश्वा इन्मामुषसः सूदयन्तु। अपामग्नेरुषसः सूर्यस्य बृहस्पतेराङ्गिरसस्य जिष्णोः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दधिक्राऽव्णः। इत्। ऊम् इति। नु। चर्किराम। विश्वाः। इत्। माम्। उषसः। सूदयन्तु। अपाम्। अग्नेः। उषसः। सूर्यस्य। बृहस्पतेः। आङ्गिरसस्य। जिष्णोः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 40; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हम प्रजागण (दधिक्राव्णः) विश्व को धारण करने वाले मूल कारणों को प्रेरित करने वाले परमेश्वर के समान (इत् उ) ही सदा राष्ट्रधारक अध्यक्षों के सञ्चालक राजा के गुणों को सर्वत्र फैलावें । राजा चाहे कि (विश्वाः इत्) समस्त (उषसः) चाहने वाली, कामनाशील प्रजाएं और तेजस्विनी सेनाए (माम्) मुझ राजा का (सूदयन्तु) अभिषेक करें, ऐश्वर्यों से सेच कर वृक्षवत् बढ़ावें । और हम (अपाम्) आप्तजनों के (अग्नेः) अग्रणी, तेजस्वी विद्वान् के (उषसः) कान्तिमती वा कामनावाली विदुषी स्त्री या शत्रुदाहक सेना के, (सूर्यस्य) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष के, और (बृहस्पतेः) बड़े भारी राष्ट्र पालक और वेदज्ञ विद्वान् के और (आङ्गिरसस्य) प्राणों के बीच स्थित आत्मवत् मुख्य तेजस्वी पुरुष के और (जिष्णोः) विजयशील पुरुष के (चर्किराम) गुणों को सर्वत्र फैलावें । (२) परमेश्वर पक्ष में—उसके गुणों को फैलावें सब नये दिन मुझे बढ़ावें । (अपाम्) सब में व्यापक (अग्नेः) सबके प्रकाशक (उषसः) सब पापों के दाहक (सूर्यस्य) सूर्यवत् स्वयं प्रकाश, तेजोमय (बृहस्पतेः) महान् ब्रह्माण्ड के पालक (आङ्गिरसस्य) तेजस्वियों में अति तेजस्वी, (जिष्णोः) सर्वातिशायी परमेश्वर के गुणों का हम स्तवन करें और अन्यों को भी उपदेश दें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः॥ १-४ दधिक्रावा। ५ सूर्यश्च देवता॥ छन्दः– १ निचृत् त्रिष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। ३ स्वराट् त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। ५ निचृज्जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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