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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 41/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रा॒ को वां॑ वरुणा सु॒म्नमा॑प॒ स्तोमो॑ ह॒विष्माँ॑ अ॒मृतो॒ न होता॑। यो वां॑ हृ॒दि क्रतु॑माँ अ॒स्मदु॒क्तः प॒स्पर्श॑दिन्द्रावरुणा॒ नम॑स्वान् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑ । कः । वा॒म् । व॒रु॒णा॒ । सु॒म्नम् । आ॒प॒ । स्तोमः॑ । ह॒विष्मा॑न् । अ॒मृतः॑ । न । होता॑ । यः । वा॒म् । हृ॒दि । क्रतु॑ऽमान् । अ॒स्मत् । उ॒क्तः । प॒स्पर्श॑त् । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒ । नम॑स्वान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रा को वां वरुणा सुम्नमाप स्तोमो हविष्माँ अमृतो न होता। यो वां हृदि क्रतुमाँ अस्मदुक्तः पस्पर्शदिन्द्रावरुणा नमस्वान् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रा। कः। वाम्। वरुणा। सुम्नम्। आप। स्तोमः। हविष्मान्। अमृतः। न। होता। यः। वाम्। हृदि। क्रतुऽमान्। अस्मत्। उक्तः। पस्पर्शत्। इन्द्रावरुणा। नमस्वान् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 41; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे (इन्द्रावरुणा) ऐश्वर्यवन् ! हे शत्रुहन्तः ! हे वरण करने योग्य और दुःखों के वारण करने हारे जनो ! (वाम्) तुम दोनों में से (कः) कौन ऐसा है जो (स्तोमः) स्तुति करने योग्य (हविष्मान्) अन्नादि ग्राह्य पदार्थों का स्वामी, (होता न) दानशील के समान (अमृतः) अमर, दीर्घजीवी होकर (सुम्नम्) सुख वा उत्तम रीति से मनन करने योग्य ज्ञान को (आप) प्राप्त करे । वा स्तुत्य, अन्नादि समृद्ध, दाता, दीर्घजीवी होकर (वां सुम्नम् आप) तुम दोनों के सुख आनन्द को कौन प्राप्त करता है ? [ उत्तर ] (यः) जो (क्रतुमान्) कर्म और ज्ञान से युक्त (नमस्वान्) अन्नादि दातव्य पदार्थों और नमस्कार, सत्कार आदि साधनों से विनयशील होकर हे (इन्द्रा-वरुणा) इन्द्र और वरुण ! हे अज्ञाननाशक हे दुःखवारक विद्वानो ! (वां हृदि) आप दोनों के हृदय में (पस्पर्शत्) स्पर्श करे, हृदय में हृदय मिलाकर एक चित्त, प्रिय, प्रेमपात्र हो जावे वह (अस्मद् उक्तः) हम से भी प्रशंसा-योग्य होता है । इन्द्र और वरुण गुरुजन हैं । [ प्रश्न ] उनके विद्यानन्द वा ज्ञान को कौन आयुष्मान् त्यागी (स्तोमः) स्तुत्य, उपदेष्टव्य शिष्य प्राप्त कर सकता है ! [ उत्तर ] जो (नमस्वान्) अति विनयशील प्रज्ञावान् एवं क्रियावान् होकर उनके हृदय में स्पर्श करे, उनके चित्त को पकड़ ले । वही उनके मननयोग्य ज्ञान को प्राप्त करता है । गुरु शिष्य दोनों हृदय स्पर्श करके एक दूसरे का चित्त ग्रहण करते हैं ऐसी ‘पद्धति’ वेदारम्भ काल में होती है । (२) ऐश्वर्यवान् होने से ‘इन्द्र’ पुरुष है । वरण करने से पतिवरा स्त्री ‘वरुण’ है । प्रश्न है कि आप दोनों में से कौन स्तुत्य, अन्नादि का स्वामी दीर्घायु, त्यागी होकर सुख पाता है । [ उत्तर ] आप दोनों में से जो प्रज्ञावान् क्रियावान्, अन्नादि से युक्त और सत्कार विनयादि से युक्त एक दूसरे का हृदय स्पर्श कर लें वही आप दोनों में से सुख पा सकता है । इस प्रकार स्त्री पुरुषों में से दोनों विवाह में परस्पर हृदय स्पर्श करते हैं । प्रेमी रहकर ही वे एक दूसरे का सुख पा सकते हैं। गुरु शिष्य दोनों में सूर्यवद् गुरु ‘इन्द्र’ और वरण करने से शिष्य ‘वरुण’ है । राजा ‘इन्द्र’ और वरण करने से प्रजा ‘वरुण’ है । सूर्य ‘इन्द्र’ पृथ्वी वा जल ‘वरुण’ है । दिन ‘इन्द्र’ रात्रि वरुण है । प्राण ‘इन्द्र’ और अपान ‘वरुण’ है । अध्याम में प्राणवान का सुख वह अन्नवान् भोक्ता आत्मा वा साधक पाता है जो ज्ञानवान् क्रियाक्षम होकर ‘हृदय’ यन्त्र पर वश करता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषि। इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्द:– १, ५, ६, ११ त्रिष्टुप्। २, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७ पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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