ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 46/ मन्त्र 5
रथे॑न पृथु॒पाज॑सा दा॒श्वांस॒मुप॑ गच्छतम्। इन्द्र॑वायू इ॒हा ग॑तम् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठरथे॑न । पृ॒थु॒ऽपाज॑सा । दा॒श्वांस॑म् । उप॑ । ग॒च्छ॒त॒म् । इन्द्र॑वायू॒ इति॑ । इ॒ह । आ । ग॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
रथेन पृथुपाजसा दाश्वांसमुप गच्छतम्। इन्द्रवायू इहा गतम् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठरथेन। पृथुऽपाजसा। दाश्वांसम्। उप। गच्छतम्। इन्द्रवायू इति। इह। आ। गतम् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 46; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
विषय - विद्युत् वा सूर्य और पवन वत् इन्द्र वायु ।
भावार्थ -
हे (इन्द्र-वायू) ऐश्वर्यवन् ! हे बलवन् राजन् ! सेनापते ! आप दोनों (पृथु-पाजसा रथेन) बड़े भारी बलशाली, बड़े विस्तृत पाद रूप चक्रों से युक्त, वेगवान् रथ से (दाश्वांसम्) दानशील प्रजाजन को (उप गच्छतम्) प्राप्त हो और (इह आगतम्) इस राष्ट्र में आया जाया करो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रवायू देवते॥ छन्दः- १ विराड् गायत्री । २, ५, ६ ७ गायत्री। ४ निचृद्गायत्री॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
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