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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 46/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रवायू छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒ह प्र॒याण॑मस्तु वा॒मिन्द्र॑वायू वि॒मोच॑नम्। इ॒ह वां॒ सोम॑पीतये ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । प्र॒ऽयान॑म् । अ॒स्तु॒ । वा॒म् । इन्द्र॑वायू॒ इति॑ । वि॒ऽमोच॑नम् । इ॒ह । वा॒म् । सोम॑ऽपीतये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इह प्रयाणमस्तु वामिन्द्रवायू विमोचनम्। इह वां सोमपीतये ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह। प्रऽयानम्। अस्तु। वाम्। इन्द्रवायू इति। विऽमोचनम्। इह। वाम्। सोमऽपीतये ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 46; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    हे (इन्द्र-वायू) विद्युत् वा सूर्य और पवन के समान तेजस्वी और बलवान् राजा और अमात्य, राजा वा सेनापति, नर नारी युगल जनो ! (इह) इस स्थान वा काल में (वां) आप दोनों का (प्रयाणं) उत्तम रीति से जाना (अस्तु) हो और (इह विमोचनम्) इस स्थान में आप दोनों का अश्वादि को रथ से पृथक् करने का स्थान हो । और (इह) इस स्थान में (वां) आप दोनों का (सोमपीतये) ऐश्वर्य, सुखादि भोगने वा अन्न जलादि पान करने के लिये स्थान हो । राजा, अमात्य, नरनारी आदि सभी का, जाने, विश्राम करने खाने आदि सभी का स्थान और काल नियमपूर्वक विभक्त होना चाहिये । इसी प्रकार आचार्य ‘इन्द्र’ है तो वायुवत् अप्रमादी, सर्वत्र जा २ कर विद्या ग्रहण करने वाले शिष्यगण ‘वायु’ हैं । इति द्वाविंशो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रवायू देवते॥ छन्दः- १ विराड् गायत्री । २, ५, ६ ७ गायत्री। ४ निचृद्गायत्री॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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