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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 39/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - विराट्सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स्थि॒रा वः॑ स॒न्त्वायु॑धा परा॒णुदे॑ वी॒ळू उ॒त प्र॑ति॒ष्कभे॑ । यु॒ष्माक॑मस्तु॒ तवि॑षी॒ पनी॑यसी॒ मा मर्त्य॑स्य मा॒यिनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्थि॒रा । वः॒ । स॒न्तु॒ । आयु॑धा । प॒रा॒ऽनुदे॑ । वी॒ळु । उ॒त । प्र॒ति॒ऽस्कभे॑ । यु॒ष्माक॑म् । अ॒स्तु॒ । तवि॑षी । पनी॑यसी । मा । मर्त्य॑स्य । मा॒यिनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्थिरा वः सन्त्वायुधा पराणुदे वीळू उत प्रतिष्कभे । युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मर्त्यस्य मायिनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्थिरा । वः । सन्तु । आयुधा । परानुदे । वीळु । उत । प्रतिस्कभे । युष्माकम् । अस्तु । तविषी । पनीयसी । मा । मर्त्यस्य । मायिनः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 39; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 2

    व्याखान -

    [परमेश्वरो हि सर्वजीवेभ्य आशीर्ददाति] ईश्वर सब जीवों को आशीर्वाद देता है कि, हे जीवो! (व:) [युष्माकम्] तुम्हारे लिए (आयुधा) आयुध, अर्थात् शतघ्नी [तोप], भुशुण्डी [बन्दूक ], धनुष-बाण, करवाल [तलवार], शक्ति [बरछी] आदि शस्त्र (स्थिरा) स्थिर और (वीळू) दृढ़ हों । किस प्रयोजन के लिए? (पराणुदे) तुम्हारे शत्रुओं के पराजय के लिए, जिससे तुम्हारे दुष्ट शत्रु लोग तुम्हें कभी दुःख न दे सकें और (उत, प्रतिष्कभे) शत्रुओं के वेग को थामने के लिए (युष्माकमस्तु, तविषी पनीयसी) तुम्हारी बलरूप उत्तम सेना सब संसार में प्रशंसित हो, जिससे तुमसे लड़ने को शत्रु का कोई संकल्प भी न हो, परन्तु “मा मर्त्यस्य मायिनः " जो अन्यायकारी मनुष्य है, उसको हम आशीर्वाद नहीं देते। दुष्ट, पापी, ईश्वरभक्तिरहित मनुष्य का बल और राज्यैश्वर्यादि कभी मत बढ़े, उसका पराजय ही सदा हो । [भक्त प्रार्थना करते हैं-] हे बन्धुवर्गो! आओ, अपने सब मिलके सर्वदुःखों का विनाश और विजय के लिए ईश्वर को प्रसन्न करें, वह ईश्वर अपने को आशीर्वाद देवे, जिससे अपने शत्रु कभी न बढ़ें ॥ २२ ॥

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