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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 96/ मन्त्र 2
ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः
देवता - द्रविणोदा अग्निः शुद्धोऽग्निर्वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स पूर्व॑या नि॒विदा॑ क॒व्यता॒योरि॒माः प्र॒जा अ॑जनय॒न्मनू॑नाम्। वि॒वस्व॑ता॒ चक्ष॑सा॒ द्याम॒पश्च॑ दे॒वा अ॒ग्निं धा॑रयन्द्रविणो॒दाम् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । पूर्व॑या । नि॒ऽविदा॑ । क॒व्यता॑ । आ॒योः । इ॒माः । प्र॒ऽजाः । अ॒ज॒न॒य॒त् । मनू॑नाम् । वि॒वस्व॑ता । चक्ष॑सा । द्याम् । अ॒पः । च॒ । दे॒वाः । अ॒ग्निम् । धा॒र॒य॒न् । द्र॒वि॒णः॒ऽदाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स पूर्वया निविदा कव्यतायोरिमाः प्रजा अजनयन्मनूनाम्। विवस्वता चक्षसा द्यामपश्च देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम् ॥
स्वर रहित पद पाठसः। पूर्वया। निऽविदा। कव्यता। आयोः। इमाः। प्रऽजाः। अजनयत्। मनूनाम्। विवस्वता। चक्षसा। द्याम्। अपः। च। देवाः। अग्निम्। धारयन्। द्रविणःऽदाम् ॥ १.९६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 96; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
विषय - स्तुतिविषयः
व्याखान -
हे मनुष्यो ! (सः) सो ही (पूर्वया, निविदा) अनादि, सनातन, सत्यता आदि गुणयुक्त अग्निपरमात्मा था, अन्य कोई नहीं था । तब सृष्टि के आदि में स्वप्रकाशस्वरूप एक ईश्वर प्रजा की उत्पत्ति की ईक्षणता (विचार) करता भया । (कव्यतायो:, इमा:) और सर्वज्ञतादिसामर्थ्य से सत्यविद्यायुक्त वेदों की तथा (मनूनाम्) मननशीलवाले मनुष्यों की तथा अन्य पशु-वृक्षादि की (प्रजा:) प्रजा को (अजनयत्) उत्पन्न किया- परस्पर मनुष्य और पशु आदि के व्यवहार चलने के लिए, परन्तु मननशीलवाले मनुष्यों को स्तुति करने योग्य अवश्य वही है। (विवस्वता चक्षसा) सूर्यादि तेजस्वी सब पदार्थों का प्रकाशनेवाला, अपने बल से (द्याम्) स्वर्ग [सुखविशेष], सब लोक (अप:) अन्तरिक्ष में पृथिव्यादि मध्यमलोक और निकृष्ट दुःखविशेष नरक और सब दृश्यमान तारे आदि लोक उसी ने रचे हैं। जो ऐसा सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर देव है उसी (द्रविणोदाम्) विज्ञानादि धन देनेवाले को ही (देवा:) विद्वान् लोग (अग्निम्) अग्नि (धारयन्) जानते हैं। हम लोग उसी को ही भजें ॥ ४२ ॥
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