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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 97 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 97/ मन्त्र 6
त्वं हि वि॑श्वतोमुख वि॒श्वत॑: परि॒भूरसि॑। अप॑ न॒: शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । हि । वि॒श्व॒तः॒ऽमु॒ख॒ । वि॒श्वतः॑ । प॒रि॒ऽभूः । असि॑ । अप॑ । नः॒ । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं हि विश्वतोमुख विश्वत: परिभूरसि। अप न: शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। हि। विश्वतःऽमुख। विश्वतः। परिऽभूः। असि। अप। नः। शोशुचत्। अघम् ॥ १.९७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 97; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
विषय - प्रार्थनाविषयः
व्याखान -
हे अग्ने परमात्मन्! (त्वं, हि) आप ही निश्चित (विश्वतः परिभूरसि) सब जगत् और सब ठिकानों में व्याप्त हो, अतएव आप विश्वतोमुख हो । हे (विश्वतोमुख) सर्वतोमुख अग्ने ! आप स्वमुख नाम स्वशक्ति से सब जीवों के हृदय में सत्योपदेश नित्य ही कर रहे हो, वही आपका मुख है। हे कृपालो ! (अप नः शोशुचदघम्) आपकी इच्छा से हमारा पाप सब नष्ट हो जाए, जिससे हम लोग निष्पाप होके आपकी भक्ति और आज्ञा-पालन में नित्य तत्पर " रहें ॥ ३९ ॥
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