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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1000
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    3

    वृ꣡षा꣢ पुना꣣न꣡ आयू꣢꣯ꣳषि स्त꣣न꣢य꣣न्न꣡धि꣢ ब꣣र्हि꣡षि꣢ । ह꣢रिः꣣ स꣢꣫न्योनि꣣मा꣡स꣢दः ॥१०००॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृ꣡षा꣢꣯ । पु꣣नानः꣢ । आ꣡यू꣢꣯ꣳषि । स्त꣣न꣡य꣢न् । अ꣡धि꣢꣯ । ब꣣र्हि꣡षि꣢ । ह꣡रिः꣢꣯ । सन् । यो꣡नि꣢꣯म् । आ । अ꣣सदः ॥१०००॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषा पुनान आयूꣳषि स्तनयन्नधि बर्हिषि । हरिः सन्योनिमासदः ॥१०००॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा । पुनानः । आयूꣳषि । स्तनयन् । अधि । बर्हिषि । हरिः । सन् । योनिम् । आ । असदः ॥१०००॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1000
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर परमात्मा और आचार्य का विषय है।

    पदार्थ

    हे परमात्मन् वा आचार्य ! (वृषा) आनन्द, विद्या आदि की वर्षा करनेवाले आप (आयूंषि) हमारे जीवनों को (पुनानः) पवित्र करते हुए (बर्हिषि अधि) अध्यात्मयज्ञ वा विद्यायज्ञ में (स्तनयन्) उपदेश करते हुए (हरिः सन्) पाप, दुर्व्यसन, दुःख आदि को हरनेवाले होते हुए (योनिम्) आत्मारूप सदन में वा गुरुकुल-सदन में (आ असदः) विराजमान होते हो ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा हमारे हृदय में स्थित होकर अपनी प्रेरणा द्वारा और गुरु गुरुकुल में स्थित होकर सब विद्याओं के पढ़ाने तथा चरित्रनिर्माण के द्वारा हमारा उपकार करते हैं, इसलिए उनका पूजन और सत्कार सबको करना चाहिए ॥२॥

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    पदार्थ

    (वृषा हरिः पुनानः सन्) हे सोम शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू कामनावर्षक दुःखापहारी सुखाहारी शोधक होता हुआ (बर्हिष-अधि-आयूंषि स्तनयन्) आयुओं जीवन के दिनों को सारे दिनों में अध्यात्मप्रवचन करता हुआ प्रवृद्ध अन्तःस्थल में (योनिम्-आसदः) हृदय घर में आ विराज॥२॥

    विशेष

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    विषय

    वासना-शून्य हृदय में

    पदार्थ

    हे सोम! आप १. (वृषा) = शक्तिशाली हो अथवा सब सुखों का वर्षण करनेवाले हो । २. आप (आयूंषि) = हमारे जीवनों को (पुनान:) = पवित्र करते हो । प्रभु-स्मरण हमें वासनाओं से बचाता ही है। ३. आप (अधिबर्हिषि) = वासनाओं से शून्य किये गये हृदयान्तरिक्ष में (स्तनयन्) = गर्जते हो । प्रभु की वेदवाणी वासनाशून्य हृदय में सुनाई पड़ती है । ५. हे प्रभो ! (हरिः सन्) = सब दुःखों व मलों के हरण करनेवाले होते हुए, ६. (योनिम्) = अन्त:करणरूप गृह में (आसदः) = आसीन होओ।

    भावार्थ

    प्रभु की वाणी वासनाशून्य हृदय में सुनाई पड़ती है।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः परमात्मविषयमाचार्यविषयं चाह।

    पदार्थः

    हे परमात्मन् आचार्य वा ! (वृषा) आनन्दविद्यादीनां वर्षकः त्वम् (आयूंषि) अस्माकं जीवनानि (पुनानः)पवित्रयन्, (बर्हिषि अधि) अध्यात्मयज्ञे विद्यायज्ञे वा (स्तनयन्) उपदिशन्, (हरिः सन्) पापदुर्व्यसनदुःखादीनां हर्ता सन् (योनिम्) आत्मसदनं गुरुकुलगृहं वा (आ असदः) आसीदसि ॥२॥

    भावार्थः

    परमात्माऽस्माकं हृदये स्थितः स्वप्रेरणया गुरुश्च गुरुकुले स्थितः सकलविद्याध्यापनेन चरित्रनिर्माणेन चास्मानुपकुरुतोऽतस्तयोः पूजनं सत्कारश्च सर्वैर्विधेयम् ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१९।३, ‘आ॒यु॑षु’, ‘योनि॒मास॑दत्’ इति पाठः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Bes tower of all comforts, preaching truth unto us by Thy presence in the body, purifying the lives of men, alleviating miseries manifest Thyself in the heart I

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    Meaning

    O Soma, giver of showers of fulfilment to the soul in living forms, purifying and sanctifying the soul of each one among humanity, presiding over the evolving forms of nature with the divine will and voice of thunder, taking on the role of creator through the dynamics of universal law, the divine Spirit abides immanent and pervasive in the womb of nature as the total seed of existence. (Rg. 9-19-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वृषा हरिः पुनानः सन्) હે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું કામના વર્ષક, દુઃખહારી, સુખકારી, પવિત્ર કરનાર (बर्हिष अधि आयूंषि स्तनयन्) આયુઓ-જીવનના દિવસો સંપૂર્ણ દિવસોમાં અધ્યાત્મ પ્રવચન કરતાં પ્રવૃદ્ધ અન્તઃસ્થળમાં (योनिम् आसदः) હૃદય ગૃહમાં આવ-બિરાજ. (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा आमच्या हृदयात स्थित असून आपल्या प्रेरणेद्वारे व गुरू गुरुकुलमध्ये स्थित राहून सर्व विद्या शिकवून व चरित्र निर्माण करून आमच्यावर उपकार करतात. त्यासाठी त्यांचे पूजन व सत्कार सर्वांनी करावा. ॥२॥

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