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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 103
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
2
ई꣡डि꣢ष्वा꣣ हि꣡ प्र꣢ती꣣व्याँ꣢३ य꣡ज꣢स्व जा꣣त꣡वे꣢दसम् । च꣣रिष्णु꣡धू꣢म꣣म꣡गृ꣢भीतशोचिषम् ॥१०३॥
स्वर सहित पद पाठई꣡डि꣢꣯ष्व । हि । प्र꣣तीव्य꣢꣯म् । प्र꣣ति । व्य꣢꣯म् । य꣡ज꣢꣯स्व । जा꣣तवे꣡द꣢सम् । जा꣣त꣢ । वे꣣दसम् । चरिष्णु꣡धू꣢मम् । च꣣रिष्णु꣢ । धू꣣मम् । अ꣡गृ꣢꣯भीतशोचिषम् । अ꣡गृ꣢꣯भीत । शो꣣चिषम् ॥१०३॥
स्वर रहित मन्त्र
ईडिष्वा हि प्रतीव्याँ३ यजस्व जातवेदसम् । चरिष्णुधूममगृभीतशोचिषम् ॥१०३॥
स्वर रहित पद पाठ
ईडिष्व । हि । प्रतीव्यम् । प्रति । व्यम् । यजस्व । जातवेदसम् । जात । वेदसम् । चरिष्णुधूमम् । चरिष्णु । धूमम् । अगृभीतशोचिषम् । अगृभीत । शोचिषम् ॥१०३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 103
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में भौतिक अग्नि के सादृश्य से परमात्मा का विषय वर्णित है।
पदार्थ
हे मनुष्य ! तू (प्रतीव्यम्) प्रत्येक वस्तु में व्यापक, (चरिष्णुधूमम्) जिसका धुएँ के तुल्य शत्रु-प्रकम्पक प्रभाव संचरणशील है ऐसे, (अगृभीतशोचिषम्) अप्रतिरुद्ध तेजवाले (जातवेदसम्) सद्गुणरूप दिव्य धन को उत्पन्न करनेवाले परमात्माग्नि की, (ईडिष्व हि) अवश्य ही स्तुति कर और (यजस्व) उसकी पूजा कर ॥७॥ श्लेष से भौतिक अग्नि के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए ॥७॥
भावार्थ
जैसे धूमशिखाओं को उठानेवाले, चमकीली ज्वालाओंवाले भौतिक अग्नि का शिल्पीजन शिल्पयज्ञों में प्रयोग करते हैं, वैसे ही प्रतापरूप धूम से शोभित, दीप्त तेजोंवाले, सत्य-अहिंसा-अस्तेय आदि दिव्य धनों के जनक परमात्माग्नि की उत्कर्ष चाहनेवाले मनुष्यों को स्तुति और पूजा करनी चाहिए ॥७॥
पदार्थ
(प्रतीव्यम्) ‘प्रति-व्यम्’ पदपाठ के अनुसार वस्तु-वस्तु के प्रति व्यापन योग्य “वी गति व्याप्ति॰” [अदादि॰] ततः ‘यत्-डित्’ (चरिष्णुधूमम्) चरणशील फैलने वाले*14 गुण या धूमसमान व्याप्ति वाले—(अगृभीतशोचिषम्) असीमित तेज वाले—(जातवेदसम्) सब उत्पन्न प्रादुर्भूत को जानने वाले सर्वज्ञ परमात्मा को (ईडिष्व हि) स्तुति में ला—उसकी स्तुति निरन्तर कर (यजस्व) जीवन में सङ्गत कर तदनुसार गुण धारण आचरण कर।
भावार्थ
हे मानव! असीमित तेज वाले परमात्मा की व्याप्ति बड़ी भारी है, दूर-दूर तक पहुँचती है, वह वस्तु वस्तु में व्यापने योग्य सर्वज्ञ है, इसलिए उसकी स्तुति सदा करनी चाहिये और जीवन में उसके गुण आदेश धारण करने चाहियें॥७॥
टिप्पणी
[*14. “विषंस्ते धूमः” “शुक्रः” [साम॰ १.८.३] शुभ्र तेज वाले धूम केवल धूएँ को ही नहीं कहते किन्तु कम्पते हुए लहराते हुए तेज या प्रकाश की तरंगों को भी कहते हैं। जैसे पुच्छलतारे को धूमकेतु कहते हैं उसका केतु तेज की फरकती हुई तरंगें हैं जो धूम नाम से कही हैं “धूमकेतवो वातजूता उपदिवि यतन्ते” [यजु॰ ३३.२]।]
विशेष
ऋषिः—विश्वमना वैयश्वः (इन्द्रियघोड़ों-इन्द्रियवृत्तियों से विगत होने में कुशल सबमें समान मनोभाव रखने वाला विरक्त समदर्शी जन)॥ देवताः—अग्निः (अन्तर्यामी सर्वसाक्षी परमात्मा)॥<br>
विषय
पूजा, सम्पर्क, समर्पण
पदार्थ
जीव कितना ही प्रयत्न करे, वह अपने को काम-क्रोधादि के विजय में असमर्थ पाता है, अतः मन्त्र में कहते हैं कि (हि) = निश्चय से (प्रतीव्यम्) = [प्रति+वी]=कामादि प्रतिकूल शत्रुओं के प्रति जानेवाले, अर्थात् उनपर आक्रमण करनेवाले प्रभु की (ईडिष्व) = स्तुति कर वे प्रभु ‘स्मरहर' हैं- इन कामादि का तेरे लिए हरण करनेवाले हैं। हृदय में स्मरहर का स्मरण होने पर वहाँ 'स्मर' कैसे आ सकता है ! 4
हे जीव! तू (जातवेदसम्)=[जातं जातं वेत्ति] उस सर्वज्ञ प्रभु की (यजस्व) = पूजा कर। उसी की भाँति सर्वज्ञ बनने का प्रयत्न कर। जितना जितना तेरा ज्ञान बढ़ता जाएगा, उतना उतना तू इन वासनाओं से ऊपर उठता जाएगा।
वह प्रभु (चरिष्णुधूमम्)=क्रिया के स्वभाववाले [चर् + इष्णु 'ताच्छील्य अर्थ में] और धूम [धूञ् कम्पने] सब बुराईयों को कम्पित कर दूर करनेवाले हैं। उस प्रभु के साथ (यजस्व)=अपना सम्पर्क स्थिर रखनेवाला बन । तू उसी की भाँति स्वाभाविकरूप से क्रियाशील बन जा। इस प्रकार तू इन अशुभ भावनाओं को कम्पित करनेवाला बन सकेगा। आलस्य के साथ वासनाओं का साहचर्य है। प्रभु का सम्पर्क तुझे शक्ति प्रवाह से शक्तिमान् बना देगा और अनथक रूप से क्रिया करनेवाला तू कभी इन वासनाओं का शिकार न होगा। -
वे प्रभु (अगृभीतशोषिचम्)=सदा अनाक्रान्त ज्योतिवाले हैं, इनकी दीप्ति मलिनता से ग्रस्त नहीं होती। वे सर्वदा शुचि - ही - शुचि हैं - निर्मल हैं। हे जीव! तू भी निर्मल प्रभु के प्रति यजस्व=अपना दान–‘अर्पण' कर दे। तू भी उसी की भाँति निर्मल बन जाएगा। देवपूजा, सङ्गतिकरण और दान-समर्पण में ही यज्ञ निहित है। यज्ञ करनेवाले जीव का जीवन यज्ञिय [पवित्र] हो जाएगा और वह सचमुच (वैयश्व)=व्यश्व [वि= विशिष्ट, अश्व = इन्द्रिय] का सन्तान, अत्यन्त उत्तम इन्द्रियोंवाला होगा। इसका मन काम-क्रोधादि की भावनाओं से दूर होने के कारण सबके प्रति प्रेमवाला होकर विश्वव्यापक, असंकुचित होगा और यह मन्त्र का ऋषि ‘विश्वमनाः' बनेगा।
भावार्थ
हम उस सर्वज्ञ, पूर्ण- प्रज्ञ प्रभु की पूजा करें। स्वाभाविक क्रियावाले प्रभु के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ें और सदा पवित्र उस प्रभु के चरणों में अपना अर्पण कर दें।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( जातवेदसं ) = पदार्थों का ज्ञान करने वाले ( चरिष्णु ) = व्यापक, दूरगामी ज्ञान साधनों से सम्पन्न, ( धूमम् ) = सबको कंपाने वाले, सब के प्रवर्त्तक, ( अगृभीतशोचिषम् ) = अप्रनिहत कान्ति से सम्पन्न, कभी न बुझने वाले, अमर, ( प्रति-व्यां ) = प्रत्येक देह या पदार्थ में व्यापक आत्मस्वरूप या ब्रह्मस्वरूप अग्नि को ही, हे पुरुष ! तू ( ईडिष्व हि ) = उपासना किया कर और ( यजस्व ) = उसी को प्राप्त कर, उसी में आत्म समर्पण कर ।
टिप्पणी
१०३ - 'प्रतीव्यं' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः।
छन्दः - उष्णिक्।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ भौतिकाग्निसादृश्येन परमात्मविषयमाह।
पदार्थः
हे मनुष्य ! त्वम् (प्रतीव्यम्२) प्रतिवस्तु व्यापकम्। प्रतिपूर्वाद् गतिव्याप्त्याद्यर्थकाद् वीधातोर्यत् प्रत्ययः, इकारस्य दीर्घश्छान्दसः। (चरिष्णुधूमम्) चरिष्णुः संचरणशीलः धूमः धूम इव शत्रुप्रकम्पकः प्रभावो यस्य तम्, (अगृभीतशोचिषम्) अगृभीतम् अगृहीतम् अप्रतिरुद्धं शोचिः तेजो यस्य तम्। अगृभीतेत्यत्र हृग्रहोर्भश्छन्दसि इति वार्तिकेन हस्य भः। (जातवेदसम्) जातं वेदः सद्गुणरूपं दिव्यं धनं यस्मात् तम् परमात्माग्निम् (ईडिष्व हि) स्तुति खलु, (यजस्व) पूजय च ॥७॥ श्लेषेण भौतिकाग्निपक्षेऽप्यर्थो योजनीयः ॥७॥
भावार्थः
यथा प्रोद्यद्धूमशिखो रोचिष्णुज्वालो भौतिकाग्निः शिल्पिभिः शिल्पयज्ञेषु प्रयुज्यते तथा विलसत्प्रतापधूमो दीप्ततेजा उपासकानामन्तःकरणे दिव्यधनानां सत्याहिंसाऽस्तेयादीनां जनकः परमात्माग्निरुत्कर्षाकाङ्क्षिभिर्जनैः स्तोतव्यः पूजितव्यश्च ॥७॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।२३।१, प्रतीव्यां३ इत्यत्र प्रतीव्यं इति पाठः। २. प्रतीव्यं महाभूतत्वात् सर्वगतम्—इति वि०।
इंग्लिश (2)
Meaning
O man, worship the Omniscient, Omnipresent, Originator, Immortal, All-pervading God, and dedicate thyself to Him.
Meaning
Study, celebrate and by yajna develop the fire divine, direct, immanent and omnipresent energy, versatile power whose smoke rises freely and whose light of flame no one comprehends, no one can obstruct. (Rg. 8-23-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (प्रतिव्यम्) પ્રત્યેક પદાર્થના પ્રતિ વ્યાપન યોગ્ય (चरिष्णुधूमम्) ચરણશીલ ફેલાવનાર ગુણ અથવા ધૂમ સમાન વ્યાપ્તિવાળા (अगृभीतशोचिषम्) અસીમિત એજવાળા , (जातवेदसम्) સર્વ ઉત્પન્ન પ્રાદુર્ભૂતને જાણનાર સર્વજ્ઞ પરમાત્માને (ईडिष्व हि) સ્તુતિમાં લાવ - તેની નિરંતર સ્તુતિ કર (यजस्व) જીવનમાં સંગત કર તે અનુસાર ગુણ ધારણ અને આચરણ કર. (૭)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે માનવ ! અસીમિત તેજવાળા પરમાત્માની વ્યાપ્તિ મહાન છે , દૂર-દૂર સુધી પહોંચે છે , તે પ્રત્યેક પદાર્થમાં વ્યાપન થવા યોગ્ય સર્વજ્ઞ છે , તેથી તેની સ્તુતિ સદા કરવી જોઈએ અને જીવનમાં તેના ગુણ આદેશ ધારણ કરવા જોઈએ. (૭)
उर्दू (1)
Mazmoon
اُسی کی عبادت میں سرشار رہ
Lafzi Maana
ہے عابد! تُو (پرتی ویمّ) سب چیزوں کے اندر موجود اور سب کی رکشا کرنے والے پرماتما کی ہی (ایڈشو) پُوجاکر، سُتتی، پرارتھنا اور اُسی کے انوکُول آچرن کیا کر اور (جات وید سَم) اُسی سروگیہ عالمِ کُل کا ہی (یجسو) یگیہ کیا کرو۔ سنگتی کیا کرو اور اپنے آپ کو سمرپن کرتے ہوئے اُس کی آگیا میں سداتت پر رہو (چرشنو دُھومم) اُپاسنا یوگ میں بیٹھے ہوئے جودُھواں معلوم دیتا ہے وہ بھگوان کی پراپتی کی پہلی منزل ہے، (اگری بھیت شوچشم) اور پھر اُس کی روشنی چاروں طرف پھیلتی ہوئی دکھائی دے گی۔ اے اُپاسک! تُو سدا اُسی کی عبادت میں سرشار رہ۔
Tashree
ہر جگہ موجود ہے جو اُس کی پُوجا کر یجن کر، نیک پاکیزہ عمل سے یکسُوئی سے بھجن کر۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसे शिल्पीजन धूमशिखांना पसरविणाऱ्या, चमकदार ज्वालांद्वारे भौतिक अग्नीला शिल्पयज्ञात प्रयोगात आणतात, तसेच पराक्रमरूपी धूमाने शोभित, दीप्त तेजयुक्त, सत्य-अहिंसा-अस्तेय इत्यादी दिव्य धनाचा जनक परमात्माग्नीचा उत्कर्ष इच्छिणाऱ्या माणसांनी स्तुती व पूजा केली पाहिजे ॥७॥
विषय
पुढील मंत्रात भौतिक अग्नीशी सादृश्य दाखवून परमेश्वराविषयी वर्णन केले आहे -
शब्दार्थ
हे मनुष्या, (प्रतीव्यम्) प्रत्येक पदार्थात व्यापक आणि (चरिष्णुधूमम्) ज्याचा प्रभाव (वा प्रताप) धूम्राप्रमाणे शत्रु- प्रकम्पक आहे आणि संचरणशील आहे, अशा त्या (अमग्रभीतशोचिषम्) अप्रतिरुद्ध तेजस्वी (ज्याचे तेज कुठेही अवरुद्ध होत नाही, अशा (जातवेदसम्) सद्गुण रूप दिव्य धन उत्पन्न करणाऱ्या परमात्म रूप अग्नीची (ईडिष्य) व अवश्य स्तुती कर आणि (यजस्व) त्याची पूजा कर. उपासना कर. ।। ७।।
भावार्थ
ज्याप्रमाणे शिल्पीजन (कारागीर, वैज्ञानिक वा अभियंत्रिकरूजन) धूर फेकणाऱ्या अग्नीत, ज्वाळाद्वारे उज्ज्वळ असलेल्या भौतिक अग्नीचा शिल्प मशाल (कारखाने आवीमध्ये) उपभोग करतात त्याचप्रमाणे आपल्या प्रत्ययरूप घूम्राने शोभित, दीप्त, तेजोमय, सत्य अहिंसा, अस्तेय आदी दिव्य धनाचा जो उत्पादक त्या परमात्मरूप अग्नीची उन्नतीची कामना करणाऱ्या मनुष्यांनी स्तुती व पूजा अवश्य केली पाहिजे. ।। ७।।
विशेष
श्लेष अलंकाराद्वारे या मंत्राचा अर्थ भौतिक अग्नीविषयी देखील केला पाहिजे (तो जसा की अग्नी सर्व वस्तूत व्याप्त आहे. त्याचा धूर सर्वत्र संचरित होतो. त्याच्या प्रकाशास वा विस्तारास कोणी रोखू शकत नाही, त्या सर्वत्र व्याप्त अग्नीमध्ये तू यज्ञ करीत जा. ।। ७।।
तमिल (1)
Word Meaning
எங்கும் செல்லும் சர்வமய [1] புகையுடனான பற்றமுடியாத சுடருடனான(ஜாதவேதசனை)த் துதி செய்யவும்.
FootNotes
[1].புகையுடனான - வியாப்த முடனான
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