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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1059
    ऋषिः - अवत्सारः काश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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    ध्व꣣स्र꣡योः꣢ पुरु꣣ष꣢न्त्यो꣣रा꣢ स꣣ह꣡स्रा꣢णि दद्महे । त꣢र꣣त्स꣢ म꣣न्दी꣡ धा꣢वति ॥१०५९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ध्व꣣स्र꣡योः꣢ । पु꣣रुष꣡न्त्योः꣢ । पु꣣रु । स꣡न्त्योः꣢꣯ । आ । स꣣ह꣡स्रा꣢णि । द꣣द्महे । त꣡र꣢꣯त् । सः । म꣣न्दी꣢ । धा꣣वति ॥१०५९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ध्वस्रयोः पुरुषन्त्योरा सहस्राणि दद्महे । तरत्स मन्दी धावति ॥१०५९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ध्वस्रयोः । पुरुषन्त्योः । पुरु । सन्त्योः । आ । सहस्राणि । दद्महे । तरत् । सः । मन्दी । धावति ॥१०५९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1059
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में ध्वस्र और पुरुषन्ति विशेषणों से आत्मा और मन के विषय में कहा गया है।

    पदार्थ

    ब्रह्मानन्दरूप सोम की धारा से नहाए हुए हम (ध्वस्रयोः) दोषों का ध्वंस करनेवाले, (पुरुषन्त्योः) बहुत से लाभों को देनेवाले आत्मा और मन के (सहस्राणि) हजारों ऐश्वर्यों को (आदद्महे) ग्रहण करते हैं, क्योंकि (मन्दी) परमेश्वर का स्तोता (सः) वह आनन्द-मग्न मनुष्य (धावति) स्वयं को धो लेता है और (तरत्) दुःख-जाल को तर लेता है ॥३॥

    भावार्थ

    आत्मा और मन को उद्बोधन देकर लोग हजारों से भी अधिक लाभों को प्राप्त कर सकते हैं और अन्त में वे परमात्मा में मग्न होकर मोक्षपद पा लेते हैं ॥३॥ यहाँ सायणाचार्य ‘ध्वस्र’ और ‘पुरुषन्ति’ को किन्हीं विशेष राजाओं के नाम मानते हैं। तदनुसार उन्होंने इस मन्त्र का अर्थ करते हुए लिखा है कि ‘ध्वस्र कोई एक राजा था, पुरुषन्ति कोई दूसरा। उन दोनों राजाओं के सहस्रों धन हम ले लें। वह हमारे द्वारा लिया हुआ धन उत्तम हो। इस प्रकार ऋषि सोम से प्रार्थना कर रहा है।’ सायण का यह लिखना सङ्गत नहीं है, क्योंकि सृष्टि के आदि में प्रोक्त वेदों में परवर्ती इतिहास नहीं हो सकता ॥

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    पदार्थ

    हे सोम—शान्तस्वरूप परमात्मन्! तेरे (ध्वस्रयोः) पापध्वंसकों (पुरुषन्त्योः) तुझ पुरुष—परमात्मा के समीप ले जाने वाले जप और अर्थभावन की (सहस्राणि-आदद्महे) सहस्रों आवृत्तियाँ करूँ। ऐसा करने वाला संसार को तरता हुआ दौड़ा जा रहा है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    प्राण और व्यान

    पदार्थ

    शरीर के सब मलों व रोगकृमियों को प्राणापानशक्ति ही ध्वस्त करती है, अतः इन्हें यहाँ 'ध्वस्त्र' नाम दिया गया है – ध्वंस करनेवाले । मलों को धवस्त करके ये प्राणापान हमारे शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग के पालन व पोषण के लिए [पुरु] विविध षन्ति = gift = शक्तियों की भेंटों को प्राप्त कराते हैं, अतः ये 'पुरु षन्ति' नामवाले हो गये हैं । इन (ध्वस्त्रयोः) = मलों का ध्वंस करनेवाले (पुरुषन्त्योः) = पालन व पूरण करनेवाली शक्तियों की भेंट देनेवाले प्राणापानों के (सहस्राणि) = [सहस्+र] शक्ति-दानों को (आदमहे) = हम स्वीकार करते हैं । सहस्र शब्द 'सहस्-बल को राति=देता है' इस व्युत्पत्ति से ‘शक्तिदान' का वाचक है । सारी शक्ति का दान प्राणापान ही पर निर्भर करता है । इन प्राणापानों से शक्ति प्राप्त करनेवाला (सः) = वह 'अवत्सार' (तरत्) = विघ्नों व रोगों को तरता हुआ (मन्दी) = उल्लासमय जीवनवाला (धावति) = आगे और आगे बढ़ता है और अधिकाधिक शुद्ध होता जाता है।

    भावार्थ

    प्राणापान 'ध्वस्र' हैं, 'पुरु षन्ति' हैं, इस तत्त्व को समझकर हम इनसे शक्तिदान प्राप्त करनेवाले हों ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ ध्वस्रपुरुषन्तिविशेषणाभ्यामात्ममनसोर्विषयमाह।

    पदार्थः

    ब्रह्मानन्दरूपस्य सोमस्य धारया स्नाताः वयम् (ध्वस्रयोः२) दोषध्वंसकयोः (पुरुषन्त्योः३) बहुदानयोः आत्ममनसोः (सहस्राणि) अनेकसहस्रसंख्यकानि ऐश्वर्याणि (आ दद्महे) गृह्णीमहे, यतः (मन्दी) परमेश्वरस्य स्तोता (सः) आनन्दमग्नः जनः (धावति) स्वात्मानं प्रक्षालयति, (तरत्) दुःखजालं तरति च ॥३॥

    भावार्थः

    आत्ममनसी उद्बोध्य जनाः सहस्रतोऽप्यधिकान् लाभान् प्राप्तुं शक्नुवन्ति। अन्ते च ते परमात्ममग्नाः सन्तो मोक्षपदं लभन्ते ॥३॥ अत्र सायणाचार्यो ‘ध्वस्रः, पुरुषन्तिः’ इति राजविशेषयोर्नाम्नी मन्यते। तथा च तद्व्याख्यानम्—[“ध्वस्रयोः पुरुषन्त्योः। ध्वस्रः कश्चिद् राजा, पुरुषन्तिः कश्चित्। तयोरुभयोः। अत्र इतरेतरयोगविवक्षया द्विवचनं द्रष्टव्यम्। सहस्राणि, धनानां सहस्राणि, आदद्महे वयं प्रतिगृह्णीमः। तदस्माभिः प्रतिगृहीतं धनमुत्तममस्त्विति ऋषिः सोमं प्रार्थयते इति सोमस्य स्तुतिः”।] इति। तत्तु न समञ्जसम्, सृष्ट्यादौ प्रोक्तेषु वेदेषु पश्चाद्वर्तिन इतिहासस्यासम्भवात् ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।५८।३। २. ध्वस्राः ध्वंसिकाः इति ऋ० ४।१९।७ भाष्ये द०। ३. ‘पुरुषन्तिम्’ पुरूणां बहूनां सन्तिं विभाजितारम्—इति ऋ० १।११२।२३ भाष्ये द०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May we acquire the thousand fold power of knowledge that banishes affliction, and action that lends strength. With them the soul of a Yogi, full of intense delight marches fast to God.

    Translator Comment

    Them refers to the power of knowledge and action. Griffith translates Dhvasra and Purushanti as two kings who conferred great wealth on Taranta and Purumilha, two rishis of the family of Vidadasva. Sec p. XXXIII of Max Muller's Rigveda, Vol. V. See Cowell's Note in Wilson's Translation. This explanation is inadmissible, as it smacks of history in the Vedas, whereas they are free from historical references. The word means knowledge and action.

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    Meaning

    Let us receive a thousand gifts of the divine soma power that destroys evil and exalts humanity. Saving, delighting and fulfilling, the stream of divine bliss flows on. (Rg. 9-58-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : હે સોમ-શાન્તસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તારા (ध्वस्रयोः) પાપ વિધ્વંસકો (पुरुषन्त्योः) તું પુરુષપરમાત્માની સમીપ લઈ જનાર જપ અને અર્થભાવનની (सहस्राणि आदद्महे) હજારો આવૃત્તિઓ કરું. એમ કરનાર સંસારને તરીને, દોડતો જઈ રહ્યો છે. તેથી (मन्दी) પરમાત્માની તે આનંદધારાનું પાન કરનાર (सः) તે સ્તુતિકર્તા (तरत्) પાપોથી તરીને (धावति) પ્રગતિ કરે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आत्मा व मनाला उद्बोधन करून लोक हजारो पेक्षाही अधिक लाभ करून घेऊ शकतात व शेवटी ते परमात्म्यात मग्न होऊन मोक्षपद प्राप्त करतात. ॥३॥

    टिप्पणी

    येथे सायण ‘ध्वस्र’ व ‘पुरुषन्ति’ एखाद्या विशेष राजांचे नाव मानतात. त्यानुसार त्यांनी या मंत्राचा अर्थ करत लिहिलेले आहे की ‘ध्वस्र एक राजा होता, पुरुषन्ति दुसरा कुणी तरी. त्या दोन्ही राजांचे सहस्र धन आम्ही घ्यावे. ते आमच्याद्वारे घेतलेले धन उत्तम असावे या प्रकारे ऋषी सोमला प्रार्थना करत आहे.’ सायणचे हे लिहिणे योग्य नाही, कारण सृष्टीच्या आरंभी प्रोक्त वेदांमध्ये परवर्ती इतिहास असू शकत नाही. ॥१०५९॥

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