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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1083
    ऋषिः - अमहीयुराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    स꣢ नो꣣ भ꣡गा꣢य वा꣣य꣡वे꣢ पू꣣ष्णे꣡ प꣢वस्व꣣ म꣡धु꣢मान् । चा꣡रु꣢र्मि꣣त्रे꣡ वरु꣢꣯णे च ॥१०८३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । नः꣣ । भ꣡गा꣢꣯य । वा꣣य꣡वे꣢ । पू꣣ष्णे꣢ । प꣣वस्व । म꣡धु꣢꣯मान् । चा꣡रुः꣢꣯ । मि꣣त्रे꣢ । मि꣣ । त्रे꣢ । व꣡रु꣢꣯णे । च꣣ ॥१०८३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो भगाय वायवे पूष्णे पवस्व मधुमान् । चारुर्मित्रे वरुणे च ॥१०८३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः । नः । भगाय । वायवे । पूष्णे । पवस्व । मधुमान् । चारुः । मित्रे । मि । त्रे । वरुणे । च ॥१०८३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1083
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर ज्ञानरस का विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    हे ज्ञानरस ! (सः) वह (मधुमान्) मधुर तू (नः) हमारे (भगाय) सूर्य तुल्य राजा के लिए, (वायवे) गतिमान् सेनाध्यक्ष के लिए और (पूष्णे) पशुपालन, कृषि, व्यापार आदि से समाज का पोषण करनेवाले वैश्य के लिए (पवस्व) क्षरित हो और (चारुः) रमणीय तू (मित्रे) राष्ट्र के मित्र ब्राह्मण में (वरुणे च) और शत्रु-निवारक क्षत्रिय में (पवस्व) क्षरित हो ॥३॥

    भावार्थ

    राष्ट्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, राजा, सेनापति, न्यायाध्यक्ष आदि और सामान्य प्रजाजन भी सभी अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार ज्ञान का सञ्चय करनेवाले होवें, जिससे राष्ट्र प्रगतिपथ पर अग्रसर हो ॥३॥ इस खण्ड में गुरु-शिष्य, परमात्मा-जीवात्मा और ज्ञानरस का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥ सप्तम अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (सः) वह सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा (नः) हमारे (भगाय) आध्यात्मिक ऐश्वर्य या आत्मिक तेज*64 के लिए (वायवे) मन*65 या मनोविकास के लिए (पूष्णे) शारीरिक पुष्टि*66 के लिए (मधुमान् पवस्व) मधुररूप होकर प्राप्त हो (मित्रे वरुणे च चारुः) प्राण*67, श्वास और अपान*68 उच्छ्वास के निमित्त भी अनुकूल रूप हो प्राप्त हो॥३॥

    टिप्पणी

    [*64. “भगश्च मे द्रविणं च मे यज्ञेन कल्पेताम्” [तै॰ सं॰ ९.७.३.१]।] [*65. “मनो वायुः” [काठ॰ १३.१]।] [*66. “पुष्टिर्वै पूषा” [काठ॰ ३१.१]।] [*67. “प्राणो वै मित्रः” [श॰ ६.५.१.५]।] [*68. “अपानो वरुणः” [श॰ ८.४.२.६]।]

    विशेष

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    विषय

    प्राणसाधना का महत्त्व

    पदार्थ

    प्रभु इस अमहीयु से कहते हैं कि (मित्रे वरुणे च) = प्राण और अपान में (चारु:) = सुन्दर ढंग से विचरण करनेवाला, अर्थात् प्राणायाम द्वारा प्राणापान की उत्तम साधना करनेवाला (मधुमान्) = अत्यन्त माधुर्यमय जीवनवाला होकर (सः) = वह तू (न:) = हमारे (भगाय) = ऐश्वर्य के लिए (वायवे) = [वायुः=प्राणः] प्राणशक्ति के लिए तथा (पूष्णे) = पुष्टि के लिए (पवस्व) = प्राप्त हो।

    ‘अमहीयु' बनने के लिए पार्थिव भोगों की लिप्सा से ऊपर उठने के लिए प्राणसाधना ही एकमात्र उपाय है। इस प्राणासाधना के लाभ निम्न हैं – १. हमारा जीवन मधुर बनता है मधुमान्हमारे मनों में ईर्ष्या-द्वेष नहीं रहते । २. हम ज्ञानरूप उत्कृष्ट ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाले होते [भग] । ३. हमारी प्राणशक्ति ठीक होने से हम क्रियाशील बने रहते हैं—हमें आलस्य नहीं घेरता [वायु]। ४. हमारा अङ्ग-प्रत्यङ्ग सुपुष्ट बना रहता है [पूषन्] ।

    भावार्थ

    प्राणसाधना के द्वारा हम 'माधुर्य, ऐश्वर्य, प्राणशक्ति व पुष्टि' प्राप्त करें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (स) वह (मधुमान्) अमृत स्वरूप (भगाय) ऐश्वर्यवान् (वायवे) प्राण स्वरूप (पूष्णः) पृष्टिकारक, आत्मा के निमित्त और (मित्रे) प्राण और (वरुणे च) अपान के लिये भी (पवस्व) प्रकट हो। परमेश्वर पक्ष में—(मित्रे वरुणे च) सर्व स्नेहवान् और सर्व दुःख वारक के रूप में प्रकट होता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ (१) आकृष्टामाषाः (२, ३) सिकतानिवावरी च। २, ११ कश्यपः। ३ मेधातिथिः। ४ हिरण्यस्तूपः। ५ अवत्सारः। ६ जमदग्निः। ७ कुत्सआंगिरसः। ८ वसिष्ठः। ९ त्रिशोकः काण्वः। १० श्यावाश्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ अमहीयुः। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १६ मान्धाता यौवनाश्वः। १५ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १७ असितः काश्यपो देवलो वा। १८ ऋणचयः शाक्तयः। १९ पर्वतनारदौ। २० मनुः सांवरणः। २१ कुत्सः। २२ बन्धुः सुबन्धुः श्रुतवन्धुविंप्रबन्धुश्च गौपायना लौपायना वा। २३ भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। २४ ऋषि रज्ञातः, प्रतीकत्रयं वा॥ देवता—१—६, ११–१३, १७–२१ पवमानः सोमः। ७, २२ अग्निः। १० इन्द्राग्नी। ९, १४, १६, इन्द्रः। १५ सोमः। ८ आदित्यः। २३ विश्वेदेवाः॥ छन्दः—१, ८ जगती। २-६, ८-११, १३, १४,१७ गायत्री। १२, १५, बृहती। १६ महापङ्क्तिः। १८ गायत्री सतोबृहती च। १९ उष्णिक्। २० अनुष्टुप्, २१, २३ त्रिष्टुप्। २२ भुरिग्बृहती। स्वरः—१, ७ निषादः। २-६, ८-११, १३, १४, १७ षड्जः। १-१५, २२ मध्यमः १६ पञ्चमः। १८ षड्जः मध्यमश्च। १९ ऋषभः। २० गान्धारः। २१, २३ धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि ज्ञानरसविषय एव वर्ण्यते।

    पदार्थः

    हे सोम ज्ञानरस ! (सः) असौ (मधुमान्) मधुरः त्वम् (नः) अस्माकम् (भगाय) सूर्यतुल्याय नृपतये, (वायवे) गतिमते सेनाध्यक्षाय, (पूष्णे) पशुपालनकृषिवाणिज्यादिना समाजस्य पोषकाय वैश्यजनाय च (पवस्व) प्रक्षर। अपि च (चारुः) रमणीयः त्वम् (मित्रे) राष्ट्रस्थे ब्राह्मणजने (वरुणे च) शत्रुनिवारके क्षत्रियजने चापि (पवस्व) प्रक्षर ॥३॥

    भावार्थः

    राष्ट्रे ब्राह्मणक्षत्रियवैश्या नृपतिसेनापतिन्यायाध्यक्षादयः सामान्याः प्रजाजनाश्च सर्वेऽपि स्वस्वयोग्यतानुसारं ज्ञानस्य संचेतारो भवन्तु, येन राष्ट्रं प्रगतिपथमनुसरेत् ॥३॥ अस्मिन् खण्डे गुरुशिष्ययोः परमात्मजीवात्मनोर्ज्ञानरसस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६१।९।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Divine and Lovely God manifests Himself for our prosperity, physical vigour, and spiritual strength, as our Friend and Alleviator of afflictions.

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    Meaning

    O Soma, beautiful, blissful, honey spirit of the sweets of existence, flow free and purifying for the glory of life, for vibrant forces, for the power of health and growth, and for the friendly and discriminative people among humanity. (Rg. 9-61-9)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सः) તે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (नः) અમારા (भगाय) આધ્યાત્મિક ઐશ્વર્ય અથવા આત્મિક તેજને માટે (वायवे) મન અર્થાત્ મનોવિકાસને માટે (पूष्णे) શારીરિક પુષ્ટિને માટે (मधुमान् पवस्व) મધુરરૂપ બનીને પ્રાપ્ત થા. (मित्रे वरुणे च चारुः) પ્રાણ-શ્વાસ અને અપાન-ઉચ્છ્વાસને માટે પણ અનુકૂળ રૂપ બન-પ્રાપ્ત થા. (૩)

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राष्ट्रात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, राजा, सेनापती, न्यायाध्यक्ष इत्यादी व सामान्य प्रजाजन ही सर्व आपापल्या योग्यतेनुसार ज्ञानाचा संचय करणारे असावेत. ज्यामुळे राष्ट्र प्रगतिपथावर अग्रेसर व्हावे. ॥३॥

    टिप्पणी

    या खंडात गुरू-शिष्य, परमात्मा - जीवात्मा व ज्ञानरसाचा विषय वर्णित असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे

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