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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 109
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
4
तं꣡ गू꣢र्धया꣣꣬ स्व꣢꣯र्णरं दे꣣वा꣡सो꣢ दे꣣व꣡म꣢र꣣तिं꣡ द꣢धन्विरे । दे꣣वत्रा꣢ ह꣣व्य꣡मू꣢हिषे ॥१०९॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । गू꣣र्धय । स्व꣢꣯र्णरम् । स्वः꣢꣯ । न꣣रम् । देवा꣡सः꣢ । दे꣣व꣢म् । अ꣣रति꣢म् । द꣣धन्विरे । देवत्रा꣢ । ह꣣व्य꣢म् । ऊ꣣हिषे ॥१०९॥
स्वर रहित मन्त्र
तं गूर्धया स्वर्णरं देवासो देवमरतिं दधन्विरे । देवत्रा हव्यमूहिषे ॥१०९॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । गूर्धय । स्वर्णरम् । स्वः । नरम् । देवासः । देवम् । अरतिम् । दधन्विरे । देवत्रा । हव्यम् । ऊहिषे ॥१०९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 109
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा की अर्चना के लिए प्रेरणा की गयी है।
पदार्थ
हे मनुष्य ! तू (तम्) उस प्रसिद्ध, (स्वर्णरम्) मोक्ष के आनन्द को प्राप्त करानेवाले परमात्मा-रूप अग्नि की (गूर्धय) आराधना कर, जिस (देवम्) तेज से देदीप्यमान तथा तेज से प्रदीप्त करनेवाले, (अरतिम्) सर्वान्तर्यामी, पुरुषार्थ में प्रेरित करनेवाले, पाप आदि के संहारक परमात्मा-रूप अग्नि को (देवासः) विद्वान् लोग (दधन्विरे) अपने अन्तःकरण में धारण करते हैं। अब परमात्माग्नि को सम्बोधन करते हैं—हे परमात्माग्ने ! आप (देवत्रा) विद्वानों में (हव्यम्) दातव्य बल को (ऊहिषे) प्राप्त कराते हो ॥३॥
भावार्थ
मनीषी लोग जिस देवाधिदेव, जगत् की रचना करनेहारे जगदीश्वर की आराधना करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि के सुख को प्राप्त करते हैं, उसकी सभी जन उपासना क्यों न करें? ॥३॥
पदार्थ
(देवासः) अमृत—मृत-मरण-जन्ममरण से रहित मुक्त आत्माएँ “अमृताः देवाः” [श॰ २.१.३.४] (स्वर्णरम्) जिस स्वः-मोक्ष प्रापक “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [१०.९०.३] (अरतिं देवम्) अन्तर्यामी देव को (दधन्विरे) प्राप्त किये हुए हैं (तं गूर्द्धय) उसे अर्चित कर—स्तुति में ला “गूर्द्धयति-अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१४] (देवत्रा) उन देवों—अमृत-अमर मुक्तात्माओं में (हव्यम्) समर्पणीय स्वात्मा को (ऊहिषे) पहुँचाने के हेतु—उनकी गणना में आने—उनकी श्रेणी में होने के हेतु “वह प्रापणे” [भ्वा॰] ततः “तुमर्थे सेसेनसेऽसेन्क्से॰......” [अष्टा॰ ३.४.९] “क्से प्रत्ययः कित्त्वात् सम्प्रसारणं वाह ऊठ्”
भावार्थ
मुक्ति में जिस मुक्तिप्रद अन्तर्यामीदेव को मुक्त आत्माएँ प्राप्त किए हुए हैं उनमें अपने को भी पहुँचाने के लिये उस परमात्मा की अर्चना स्तुति करनी चाहिए॥३॥
विशेष
ऋषिः—सौभरिः (सुभर परमात्मा से गुण प्राप्त करने में कुशल जन)॥<br>
विषय
स्वर्णर देव की उपासना
पदार्थ
के ऋषि “सोभरि काण्व" हैं - यह कण्वपुत्र अर्थात् अत्यन्त मेधावी [कण्व=मेधावी] उत्तम प्रकार से अपना पालन करनेवाला है। जीव स्वयं अपूर्ण होने से अपने पूरण के लिए प्रकृति या परमात्मा की अपेक्षा करता है। शरीरधारी जीव के वस्तुतः दो अंश हैं—[१] क्षरांश–शरीर [२] अक्षरांश - आत्मतत्त्व, अतः इसे इन दोनों के पूरण के लिए क्रमशः प्रकृति व परमात्मा की आवश्यकता है। सामान्य मनुष्य केवल प्रकृति की ओर झुक जाता है और कुछ शारीरिक भोगों व आनन्द को प्राप्त करने के साथ उन्हीं में उलझकर अन्त में उनका शिकार हो जाता है । मन्त्र में कहते हैं कि (तम्) = उस प्रभु की (गूर्धय) = अर्चना कर जोकि (स्वर्णरम्) = स्वर्ग में - सुखमय स्थिति में पहुँचानेवाला है। प्रभु सुखमय स्थिति में किस प्रकार पहुँचाते हैं? इसका उत्तर मन्त्र में इस प्रकार दिया गया है कि (देवासः) = समझदार ज्ञानी लोग देवम्=उस दिव्य गुण परिपूर्ण (अरतिम्) = विषयों में अ- रममाण प्रभु की (दधन्विरे) = उपासना करते हैं। अ-रममाण प्रभु के उपासक ये देव स्वयं भी अ - रममाण बनने का प्रयत्न करते हैं। वस्तुतः शरीर के लिए इन भोगों का उपादान आवश्यक है, इनमें फँस जाना हमारे अकल्याण का कारण होता है। यदि हम शरीर के लिए इनका सेवन करते रहें और 'अरति' परमात्मा की उपासना द्वारा इनमें फँसे नहीं तो ये भोग हमारे शारीरिक स्वास्थ्य का साधन बनते हुए आत्मिक पतन का कारण न बनेंगे। उस समय हमारा शरीर स्वस्थ होगा तथा आत्मा शान्त होगी। हम स्वर्ग में होंगे - सब कष्टों से ऊपर | भोगों में फँस जाने से हमारी आवश्यकताएँ बढ़ जाती हैं और हम उन्हीं को जुटाने में मर - खप जाते हैं। उस समय हम लोकहित के लिए कुछ व्यय नहीं कर सकते, परन्तु भोगों में न फँसने से (देवत्रा) = देवताओं में (हव्यम्) = देने योग्य पदार्थों को (ऊहिषे) = प्राप्त कराने के लिए हम समर्थ होते हैं।
भावार्थ
अ-रममाण प्रभु की उपासना के द्वारा हम अपनी स्थिति को सुखमय बनाएँ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे मनुष्य ! ( तं ) = उस ( स्व:-नरं ) = सब के नेता अथवा उस सुखस्वरूप, मोक्षमार्ग के पथदर्शक, परम ( देवम् ) = देव की ( गूर्धय ) = स्तुति कर, उसके गुणों का गान कर । ( देवासः ) = देव - विद्वान लोग, इन्द्रियां या पंचभूत उस ( देवम् ) = प्रकाशमान देव को ( अरति १ ) = सर्वज्ञ या अति प्रीतिमान् स्वामी ( दधन्विरे ) = स्वीकार करते हैं । वह ( देवत्रा ) = दिव्य गुण सम्पन्न विद्वानों, पञ्चभूतों और इन्द्रियों में ( हव्यं ) = उनके भीतर शक्ति ज्ञान और भोग्य पदार्थों को ( ऊहिषे ) = पहुंचाता है।
टिप्पणी
१०९ - 'गूर्धया', 'हव्यमोहिरे ' इति ऋ० ।
१ अरतिम् अलंमतिं सर्वज्ञमिति मा० वि० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः- सौभरि:।
छन्दः - ककुप्।
Bhajan
आज का वैदिक भजन
*भाग 1/3
ओ३म् तं꣡ गू꣢र्धया꣣꣬ स्व꣢꣯र्णरं दे꣣वा꣡सो꣢ दे꣣व꣡म꣢र꣣तिं꣡ द꣢धन्विरे ।
दे꣣वत्रा꣢ ह꣣व्य꣡मू꣢हिषे ॥१०९॥
तं꣡ गू꣢र्धया꣣꣬ स्व꣢꣯र्णरं दे꣣वा꣡सो꣢ दे꣣व꣡म꣢र꣣तिं꣡ द꣢धन्विरे ।
दे꣣वत्रा꣢ ह꣣व्य꣡मू꣢हिषे ॥१६८७॥
सामवेद 109, 1687
कर ले मन तैयारी
हाँक स्वर्ग की गाड़ी
'स्व' में ही तेरा स्वर्ग
सुख का तू स्वचारी
आत्म-नेता है तेरा जो
है सदा हितकारी
कर ले मन तैयारी
हाँक स्वर्ग की गाड़ी
कौन सा सुख ऐसा जो ना
तेरे है आधीन
हर पल तेरे साथ रहे
हर मर्ज़ का हकीम
इन्द्र तू है राजा स्वर्ग का
रख सफर अपना इसी में जारी
कर ले मन तैयारी
हाँक स्वर्ग की गाड़ी
इन्द्रियों के विषय हैं पर
फिर भी है यह दूर
उस पे भी निश्चित नहीं है
कब यह होंगे पूर
इन्द्र तू जो वस्तु चाहे
झट से अपने पास ले आता सारी
कर ले मन तैयारी
हाँक स्वर्ग की गाड़ी
'स्व' में ही तेरा स्वर्ग
सुख का तू स्वचारी
आत्म-नेता है तेरा जो
है सदा हितकारी
कर ले मन तैयारी
हाँक स्वर्ग की गाड़ी
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :--
राग :- जोग
राग का गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर, ताल रूपक सात मात्रा
शीर्षक :- चलता फिरता अपाहिज भजन 722Aवां, भाग १(कल भाग २)
*तर्ज :- *
734-00135
स्व = आत्मा, अपना आपा
स्वचारी = स्वयं चलने वाला
मर्ज़ = बीमारी
हकीम = डॉक्टर
पूर = पूर्ण,
निरत = काम में लगा हुआ, लीन
निष्काम = बिना स्वार्थ
अविकारी = दोष रहित, गुणवान
सुखाभास = सुख लगना यह उसका आभास होना
कृतज्ञता = आभारी, एहसानमंद(विनय का आभास होना, एहसान मानना)
अन्यारी = निराली,अनोखी
'हव्यवाहन' = जीवन को अच्छे कर्मों के द्वारा उठाना, उन्नत करना, हर किसी के काम आना(इसकी व्याख्या ऊपर उपदेश में है।
हव्यवाट् = देवताओं का अग्नि रूप साधन,
(सब को उन्नति की ओर ले जाने वाला साधन)
अपाहिज = शरीर को गति ना देकर, आलसी से होकर पड़े रहना।
प्रवाहित = बहता हुआ (निरंतर सत्कर्म में लगा हुआ)
हविरूप स्तुति = निष्काम कर्म की स्तुति (परमात्मा से)
आज का वैदिक भजन 🙏 1145
भाग 2/3
कर ले मन तैयारी
हाँक स्वर्ग की गाड़ी
'स्व' में ही तेरा स्वर्ग
सुख का तू स्वचारी
आत्म-नेता है तेरा जो
है सदा हितकारी
कर ले मन तैयारी
हाँक स्वर्ग की गाड़ी
तू तो बस उसके गुणों का
कर कीर्तन और ध्यान
कर आनन्द की खोज
जिसमें आत्म-तृप्ति का धाम
आत्मसुख में ही तेरा सुख
जो निरत निष्काम रहे अविकारी
कर ले मन तैयारी
हाँक स्वर्ग की गाड़ी
इन्द्रियाँ हैं विविध देव
आत्मा देवाधिदेव
रखता है आध्यात्मिक आस्था
जाने सच्चा ध्येय
इन्द्रियों का सुखाभास तो
अन्त में बनता है बड़ा दु:खदायी
कर ले मन तैयारी
हाँक स्वर्ग की गाड़ी
कर ले मन तैयारी
हाँक स्वर्ग की गाड़ी
'स्व' में ही तेरा स्वर्ग
सुख का तू स्वचारी
आत्म-नेता है तेरा जो
है सदा हितकारी
कर ले मन तैयारी
हाँक स्वर्ग की गाड़ी
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :--
राग :- जोग
राग का गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर, ताल रूपक सात मात्रा
शीर्षक :- चलता फिरता अपाहिज भजन 722Aवां, भाग 2(कल भाग 3)
*तर्ज :- *
00135-735
स्व = आत्मा, अपना आपा
स्वचारी = स्वयं चलने वाला
मर्ज़ = बीमारी
हकीम = डॉक्टर
पूर = पूर्ण,
निरत = काम में लगा हुआ, लीन
निष्काम = बिना स्वार्थ
अविकारी = दोष रहित, गुणवान
सुखाभास = सुख लगना यह उसका आभास होना
कृतज्ञता = आभारी, एहसानमंद(विनय का आभास होना, एहसान मानना)
अन्यारी = निराली,अनोखी
'हव्यवाहन' = जीवन को अच्छे कर्मों के द्वारा उठाना, उन्नत करना, हर किसी के काम आना(इसकी व्याख्या ऊपर उपदेश में है।
हव्यवाट् = देवताओं का अग्नि रूप साधन,
(सब को उन्नति की ओर ले जाने वाला साधन)
अपाहिज = शरीर को गति ना देकर, आलसी से होकर पड़े रहना।
प्रवाहित = बहता हुआ (निरंतर सत्कर्म में लगा हुआ)
हविरूप स्तुति = निष्काम कर्म की स्तुति (परमात्मा से)
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
प्राक्कथन
प्रिय पाठको एवं श्रोताओ
यदि आपने इस मन्त्र के उन्नत विचारों को हृदयम कर लिया, तो इस दुनियां की भीड़ में आप अलग व्यक्तित्व वाले मनुष्य दिखलाई पड़ेंगे।
कितनी हास्यास्पद बात है कि हर मनुष्य सुख पाना चाहता है, कुछ अंश में वह उस दयालु परमात्मा से सुख भी लेता है, पर परमात्मा ने तो लूटने के लिए सुख का भण्डार दिया हुआ है। सुख तो छोड़ो, सुख से कई गुना बडा़ अनमोल आनन्द भी प्रदान किया है। किन्तु मनुष्य है कि जीवन में हव्यवाट्(दानी बनकर आनन्द प्राप्त करने वाला) नहीं बनना चाहता। काम क्रोध लोभ मोह अहंकार पाप दुरित क्या-क्या गन्दगी लेकर बैठा है।
फिर भी उसे सुख और आनन्द की लालसा है। कहां से मिलेगा? वह तो एक तरह का अपाहिज है। इन बुराइयों ने उसके पैर तोड़ रखे हैं। और स्वर्ग-सुख की कल्पना कर रहा है।
स्वर्ग कोई अपने से बाहर की वस्तु नहीं है। जीवन में जितना सुख और आनन्द प्राप्त करते हैं वही हमारा स्वर्ग है। इसके विपरीत नरक। अगर इन्द्रियां अपने राजा इन्द्र आत्मा,की बात मान ले, और जीवन को यज्ञ की आहुतियों से 'सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम्'कर ले तो खुद ही स्वर्ग का सुख पाने वाला देवता बन जाए। बात को यदि और स्पष्टता से समझना चाहो तो अपने महापुरुषों को देख लो।
प्यारे पाठको! यदि आज से ही आप समझ लो कि हमें सच्चा सुख पाना है, तो छोटी-छोटी बातों में अपने आप को उलझाओ मत, ईर्ष्या द्वेष क्रोध अहंकार, दुश्मनी से स्वर्ग का सुख पाने का समय मत गंवाओ। अपने स्वर्ग की गाड़ी पर सवार होकर उसको हांकने के लिए। उत्साह से बैठ जाओ। खुद भी जीवन सफर का आनन्द लो और अपने साथ औरों को बिठाकर उन्हें भी आनन्द दो।
इस पार,रथ प्रेम का हो,राह प्रेम की हो, और उस पार विराजमान परमात्मा, प्रेम से भरा हुआ हो, जिनसे आप मिलने के लिए इस रथ में जा रहे हो तो सुख और आनन्द तो साथ में होगा ही।
जब परमात्मा अच्छी बातों का सम्मान करता है, तो वह आपका सामान क्यों कर नहीं करेगा?
यह याद रखो कि राह प्रेम की है इस राह में मिलने वाले हर जीवात्मा से आपका प्रेम होना चाहिए। तो कठिनाइयां कोसों दूर हैं। जहां आप पहुंचना भी नहीं चाहेंगे।
आप सभी को परमात्मा सुख और आनन्द से भर दें इस आशा के साथ 🕉️🙏
चलता फिरता अपाहिज
मेरे मन तू चाहता है कि स्वर्ग में पहुंचे? तो वह स्वर्ग तेरे पास ही है। तेरा अपना 'स्व'
ही स्वर्ग है। तू अपने- आप पहचानता नहीं। वह सुख कौन सा है जो तेरे आधीन नहीं? अन्य इन्द्रियों को तो अपने विषयों तक पहुंचने में कुछ कठिनाई भी है। उनके विषय उनसे दूर हैं। वे इस दूरी को पाटें (गड्ढे वाली राह को समतल करें) तब कहीं अपनी वांछित वस्तु का उपयोग करें। तू जिस वस्तु को चाहे झट पास बुला ले।
वस्तुतः विषयों का तेरा चुनाव अशुद्ध रहता है, इसी से तुझे दु:ख की प्राप्ति होती है। अपनी स्थिति को स्वयं स्वर्ग अथवा नरक बना लेना तेरे अपने अधीन है। स्वर्ग का राजा इन्द्र। आत्मा ही स्थाई सुखों का नेता है,स्वामी है। वही नर है। नर अथवा नारी एक ही चीज है। तू उस आत्मा का ध्यान कर। उसी को अपनी स्तुति का पात्र बना। उसके गुणों का ध्यान कर। कीर्तन कर। तू अपने आनन्द की खोज उसी वस्तु में कर जिससे आत्मा को तृप्ति हो।
एक छोटा देवलोक तो यही शरीर ही है। इसमें काम कर रही सभी इन्द्रियां देव हैं। इन देवों का देवाधिदेव आत्मा है।और महादेव परमात्मा हैं।
इन इन्द्रियों की संपूर्ण शक्ति आत्मा के कारण है। आत्मा सुखी है तो यह भी सुखी हैं।
आत्मा को क्लेश हो तो किसी इन्द्रियों को भी चैन से रहने का अवसर नहीं मिल सकता। जहां इन्द्रियों का सुख आत्मा के सुख से विपरीत हो, वह सुख का आभास हो तो हो, वास्तविक सुख नहीं। उस सुख का अन्त दु:ख ही है। आध्यात्मिक शान्ति ही वास्तविक शान्ति है। उसे शान्ति के रहते ही भौतिक जीवन में शान्ति की प्राप्ति हो सकती है।
बड़े पैमाने पर सम्पूर्ण ब्रह्मांड देवलोक है। इसमें स्थल-स्थल पर देवताओं की क्रीडा हो रही है। प्रत्येक देवता आनन्द में मगन हैं। इन देवताओं का देवाधिदेव महादेव परमात्मा है। वास्तविक लीला उसी की है। उसी की शक्ति से अन्य सब देव शक्तिशाली हैं। उसी के आनन्द में सब आनन्दित हैं।
मेरे मन! तुझे आनन्द की तलाश है तो उस आनन्द स्वरूप के संयोग ही से आनन्दित हो। स्तुति का पात्र वही है; आत्मा-- 'उपस्तुत' है। परमात्मा की स्तुति में उप-स्तुति- गौण स्तोत्र-आत्मा का भी हो जाता है।
देवताओं को हवि चाहिए। बिना अग्नि के हवन नहीं होता। देवताओं का हव्यवाट्
अग्नि है। शरीर की अग्नि आत्मा है, विश्व की परमात्मा।
जहां आत्मा ने शरीर को छोड़ा, इन्द्रियों के रहते भी उसमें उपभोग की शक्ति नहीं रहती। बिना आत्मा के ना शरीर का विकास ही होना सम्भव है ना किसी निर्जीव अंग द्वारा सुख-दु:ख की अनुभूति ही हो सकती है।
शरीरकी सब चेष्टाएं आत्मा की विद्यमानता का फल है। ऐसे ब्रह्मांड में परमात्मा की स्थिति से ही व्यवस्था है, नियंत्रण है, नियमित गति है।
शक्ति प्रभु से आती है। और तो और, हमारा अपना शरीर ही कई अंशों में हम से स्वतंत्र है। यह हमारे अधीन किया गया है। आखिर इसके परमाणु हैं तो इसी ब्रह्मांड ही का एक भाग जिसकी सत्ता हम से सर्वथा स्वतंत्र है। फिर भी यह हमारा उपकरण बन रहा है। किसी महान व्यवस्थापक की अवस्था से ही हमारा इसका संबंध हुआ। फिर और वस्तुओं का तो कहना ही क्या! ब्रह्मांड का एक बहुत बड़ा काम हमारे वशीभूत हो रहा है। यह उसी देवाधिदेव प्रभु की कृपा है।
मेरे मन! तू उसी की शरण में जा । उसके गुणगान से कृतज्ञता की भावना होगी। विनय का आभास होगा, 'हव्य वाहन'की ओर रुचि होगी। जीवन नाम ही 'हव्य वाहन' का है। किसी के काम आना, किसी की आवश्यकता, भूखे को भोजन, नंगे को वस्त्र, लूले को गति, गूंगे को पानी देना 'हव्य वाहन' है।
मेरे मन! क्या तू स्वयं भूखा नहीं, प्यासा नहीं, लूला नहीं, लंगड़ा नहीं, तू अपाहज न भी हो, सभी चेष्टाएं तेरी अपनी हों भी, पर यदि संसार में और कोई वस्तु ना हो और तेरा उससे कोई सम्बन्ध ना हो, तेरी पहुंचते ही संसार से बाहर हो तो तू चलता फिरता भी क्या अपाहिज ना हो जाए? कोई तेरा 'हव्यवाट्' हुआ है तो तू दूसरों का हव्यवाट् बन। 'हव्यवाट्'की वास्तविक स्तुति यही है।
🕉🧘♂️ईश भक्ति भजन
भगवान् ग्रुप द्वारा 🙏🎧
वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएँ 🌹🙏
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मार्चनाय प्रेरयति।
पदार्थः
हे मानव ! त्वम् (तम्) प्रसिद्धम् (स्वर्णरम्२) मोक्षानन्दस्य प्रापयितारम् परमात्माग्निम्। स्वः मोक्षादिसुखं नृणाति प्रापयतीति स्वर्णरः तम्। स्वः इति सुखनाम। नॄ नये क्र्यादिः। (गूर्धय) अर्च। गूर्धयतिः अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। संहितायाम् अन्येषामपि दृश्यते।’ अ० ६।३।१३७ इति दीर्घः। यम् (देवम्) तेजसा दीप्तं दीपयितारं च (अरतिम्३) सर्वान्तर्यामिनम्, पुरुषार्थे प्रेरकम्, पापादिसंहारकम् परमात्माग्निम्। ऋच्छति व्याप्नोति सर्वत्र, अर्पयति प्रेरयति पुरुषार्थे, ऋणोति हिनस्ति पापादिकं वा यः सः अरतिः। ऋ गतिप्रापणयोः इति, ऋ हिंसायाम् इति वा धातोः ‘बहिवस्यर्तिभ्यश्चित्।’ उ० ४।६० इत्यनेन अतिः प्रत्ययः। (देवासः) देवाः विद्वांसः (दधन्विरे) स्वान्तःकरणे धारयन्ति। डुधाञ् धारणपोषणयोः धातोर्द्विविकरणत्वे छान्दसं रूपमिदम्। यद्वा धन्वतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। तस्य लडर्थे लिटि रूपम्। व्यत्ययेनात्मनेपदम्। अथ परमात्माग्निः सम्बोध्यते—हे परमात्माग्ने ! त्वम् (देवत्रा) देवेषु विद्वत्सु। ‘देवमनुष्यपुरुषपुरुमर्त्येभ्यो द्वितीयासप्तम्योर्बहुलम्।’ अ० ५।४।५६ इति सप्तम्यर्थे त्रा प्रत्ययः। (हव्यम्) दातव्यं बलम् (ऊहिषे) वहसि। अत्र वह प्रापणे धातोः कालसामान्ये लिट्, मध्यमैकवचने रूपम्। तिङ्स्वरः ॥३॥
भावार्थः
मनीषिणो जना यं देवाधिदेवं जगत्स्रष्टारं जगदीश्वरमाराध्य धर्मार्थकाममोक्षादिसुखं प्राप्नुवन्ति, स सर्वैरेव जनैः कुतो नोपासनीयः ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।१९।१, हव्यमूहिषे इत्यत्र हव्यमोहिरे इति पाठः। साम० १६८७। २. स्वर्णरं सर्वस्य नेतारम्। स्वः शब्दः सर्वशब्दपर्यायः। अपि वा स्वर्गस्य नेतारम्—इति भ०। स्वर्णरं सर्वस्य नेतारं, सर्वैः यजमानैः कर्मादौ नेतव्यं वा, अथवा स्वर्गं प्रति हविषां नेतारम्—इति सा०। स्वः, लुप्तोपमम् इदं द्रष्टव्यम्, स्वरिव आदित्यमिवेत्यर्थः, नरं नराकारम्—इति वि०। स्वः, नरम् इति पृथक् पदद्वयमिति पदकृत्पाठात् स्वरश्रुतेश्च स्पष्टमवगम्यते, विवरणकारश्चैवमेव व्याचष्टे—इति सत्यव्रतसामश्रमी। तत्तु चिन्त्यम्, उपलब्धपदपाठपुस्तकेषु समस्तपदत्वेनैव प्रदर्शितत्वात्। ऋग्वेदपदकारेणापि सर्वत्र स्व॑र्णरम् इति पदं स्वः॑ऽनरम् इति समस्तपदत्वेनैव निरूपितम्, सायणादिभिश्च तथैव व्याख्यातम्। समस्तपदत्वेन स्वीकृते सति स्वरोऽपि संगच्छत एव। स्वर् इति न्यङ्स्वरौ स्वरितौ इति स्वरितम्, तत्पुरुषेऽव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरः। ३. अरतिम् अलं मतिम् पर्याप्तमतिं सर्वज्ञमित्यर्थः। अथवा देवान् यजमानांश्च प्रति गन्तारम्—इति वि०।
इंग्लिश (2)
Meaning
Sing praise to God, the Leader of all. The learned acknowledge Him, the Omniscient. He imparts strength, knowledge and edibles to the pious seekers after knowledge.
Meaning
Praise the self-refulgent lord giver of heavenly bliss whom the divinities of light and enlightenment hold and reflect in all his glory, Agni, the lord adorable, all pervasive yet uninvolved, whom, for success and advancement, noble and learned people perceive, realise and worship as the one worthy of worship. (Rg. 8-19-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (देवासः) અમૃત-મૃત-મરણ-જન્મમરણથી રહિત મુક્ત આત્માઓ (स्वर्णरम्) જે સ્વ: - મોક્ષ પ્રાપક = પહોંચાડનાર , (अरतिं देवम्) અંતર્યામી દેવને (दधन्विरे) પ્રાપ્ત કરેલ છે , (तं गूद्र्धय) તેને અર્પિત કર - સ્તુતિમાં લાવ ; (देवत्रा) તે દેવો - અમૃત - અમર મુક્તાત્માઓમાં (हव्यम्) સમર્પણીય પોતાના આત્માને (ऊहिषे) પહોંચાડવા માટે - તેની ગણનામાં આવવા - તેની શ્રેણીમાં બનવા માટે. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : મુક્તિમાં જે મુક્તિપ્રદ અન્તર્યામી દેવને મુક્ત આત્માઓ પ્રાપ્ત કરેલ છે , તેમાં પોતાને પણ પહોંચાડવા માટે તે પરમાત્માની અર્ચના સ્તુતિ કરવી જોઇએ. (૩)
उर्दू (1)
Mazmoon
اَرپن اُس کو اپنا کر
Lafzi Maana
(دیواسہ) امرت دیوگن، جس (سؤرنم ارتِم دیوم) سؤرگ سُکھ دھام جگت سوامی پرماتم دیو کو (ددھنِورے) اپنی آتما میں دھارن کئے ہوئے ہیں (تم) اُس کو ہے اُپاسک (عابد) تُو (گُوردہیئے) ارچنا کیا کر، پانے کے لئے کوشاں رہ، تب تُو (دیو ترام) دیووں کے دیو بھگوان کو (ہویمّ) اپنے سمرپن کی آہُوتی (اُوہشِے) پہنچا سکے گا۔
Tashree
سؤرگ دھام کے راجہ پرمیشور کی پیارے پُوجا کر، دیووں کا جو دیو پربُھو وَر اَرپن اُس کو اپنا کر۔
मराठी (2)
भावार्थ
बुद्धिमान लोक देवाधिदेव, जगाची रचना करणाऱ्या जगदीश्वराची आराधना करून धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इत्यादी सुख प्राप्त करतात, त्याची उपासना का करू नये? ॥३॥
विषय
आता परमेश्वराची अर्चन करण्याविषयी प्रेरणा केली आहे -
शब्दार्थ
हे मनुष्या, तू (तम्) त्या प्रख्यात (स्वर्णरम्) मोक्षाचा आनंद प्राप्त करून देणाऱ्या परमात्मरूप अग्नीची (गूर्धय) आराधरा कर. त्याच (देवम्) स्वतेजाने देदीप्यमान आणि स्वतेजाने इतर (गुह - नक्षत्राने) प्रदीप्त करणाऱ्या (अरतिम्) सर्वान्हर्यामी, सर्वांना पुरुषार्थ करण्यास प्रेरणा देणाऱ्या, पाप विनाशक परमात्मरूप अद्नीसा (देवासः) विद्वज्जन (दधन्विरे) आपल्या अंतःकरणात धारण करतात. यापुढे त्या परमात्माग्नीस संबोधून म्हणतात - हे परमात्मरूप अग्नी, आपणच (देवत्रा) विद्वानांमध्ये (त्यांच्या मन- बुद्धीमध्ये) (हव्यम्) दातव्य बळ (अहिषे) प्राप्त करून देता. (आपणच विद्वानांच्या हृदयात कर्तव्यपूर्ती करण्याचे बळ देणारे आहात.) ।। ३।।
भावार्थ
मनीषी विद्वान ज्या देवाधिदेवाची, ज्या जग निर्माता परमेश्वराची आराधना करून धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदींचे सुख प्राप्त करतात त्या जगदीश्वराची उपासना सर्वांनी का बरे करू नये... अर्थात अवश्य करावी. ।। ३।।
तमिल (1)
Word Meaning
நீ அவன் நட்பை அடைந்து [1]அவன் ஜயமடைகிறான். சோதியின் தலைவனுக்கு கானஞ் செய்யவும். தேவர்களுக்கு ஹவிஷைக் கொண்டு போகச் செல்லும் தேவரை துதிகளால் தேவர்கள் அடைகிறார்கள்.
FootNotes
[1].அவன் - உன்னை நாடுபவன்
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