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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1100
    ऋषिः - पर्वतनारदौ काण्वौ देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
    2

    अ꣣यं꣡ दक्षा꣢꣯य꣣ सा꣡ध꣢नो꣣ऽय꣡ꣳ शर्धा꣢꣯य वी꣣त꣡ये꣢ । अ꣣यं꣢ दे꣣वे꣢भ्यो꣣ म꣡धु꣢मत्तरः सु꣣तः꣢ ॥११००॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अय꣢म् । द꣡क्षा꣢꣯य । सा꣡ध꣢꣯नः । अ꣡य꣢म् । श꣡र्धा꣢꣯य । वी꣣त꣡ये꣢ । अ꣣य꣢म् । दे꣣वे꣡भ्यः꣢ । म꣡धु꣢꣯मत्तरः । सु꣣तः꣢ ॥११००॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं दक्षाय साधनोऽयꣳ शर्धाय वीतये । अयं देवेभ्यो मधुमत्तरः सुतः ॥११००॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । दक्षाय । साधनः । अयम् । शर्धाय । वीतये । अयम् । देवेभ्यः । मधुमत्तरः । सुतः ॥११००॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1100
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा मनुष्यों का क्या उपकार करता है, यह कहते हैं।

    पदार्थ

    (साधनः) सिद्धिप्रदाता (अयम्) यह पवमान सोम अर्थात् पवित्रकर्ता परमेश्वर (दक्षाय) आत्मबल के लिए होता है। (अयम्) यह परमेश्वर (शर्धाय) उत्साह देने के लिए और (वीतये) लोगों की प्रगति के लिए होता है। (सुतः) ध्यान किया गया (अयम्) यह (देवेभ्यः) विद्वान् सदाचारी उपासकों के लिए (मधुमत्तरः) अतिशय मधुर होता है ॥३॥

    भावार्थ

    श्रद्धा से उपासना किया गया परमेश्वर उपासक को आत्मबल, उत्साह, प्रगति तथा वाणी, कर्म एवं व्यवहार में मधुरता प्रदान करता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (अयं सुतः) यह साक्षात् हुआ शान्तस्वरूप परमात्मा (देवेभ्यः-मधुमत्तरः) मुमुक्षुजनों के लिए अत्यन्त मधुररसरूप है (अयं दक्षाय साधनः) यह समृद्धि*88 का*89 साधनेवाला है (अयं शर्धाय वीतये) यह बल—आत्मबल*90 का साधने वाला और कामपूर्ति का साधने वाला है॥३॥

    टिप्पणी

    [*88. “अथ यदस्मै तत् समृध्यते स दक्षः” [श॰ ४.१.४.१] [*89. “चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि” [अष्टा॰ २.३.६२] इति चतुर्थ्यर्थे षष्ठी।] [*90. “शर्धः बलनाम” [निघं॰ २.९]।]

    विशेष

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    विषय

    प्रभु का सच्चा पुत्र

    पदार्थ

    १. (अयम्) = यह प्रभु-भक्त (दक्षाय) = उन्नति के लिए (साधनः) = जानेवाला होता है। [साधयतिः गतिकर्मा], अर्थात् दिन-प्रतिदिन उन्नति-पथ पर बढ़ता चलता है । २. (अयम्) = यह (शर्धाय) = शक्ति के लिए (साधन:) = जानेवाला होता है, अर्थात् इसकी शक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है । ३. (अयम्) = यह (वीतये) = अन्धकार के नाश व प्रकाश के लिए (साधनः) = जानेवाला होता है। प्रभुभक्त अज्ञानान्धकार से ऊपर उठकर ज्ञान के प्रकाश में पहुँच जाता है । ४. (अयम्) = यह (देवेभ्यः) = दिव्य गुणों के विकास के लिए होता है, अर्थात् उसमें दिव्यता बढ़ती जाती है । ५. (मधुमत्तरः) = अत्यन्त माधुर्यवाला यह (सुतः) = [सुतम् अस्यास्ति इति] ऐश्वर्यवाला होता है अथवा (सुतः) = यह प्रभु का सच्चा पुत्र होता है । 

    भावार्थ

    प्रभु का सच्चा पुत्र वह है जो- १. उन्नति को सिद्ध करता है, २. शक्ति को बढ़ाता है, ३. अन्धकार को दूर कर प्रकाश को प्राप्त करता है, ४. दिव्य गुणों का विकास करता है, अत्यन्त माधुर्यमय जीवनवाला होता है ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (अयं) यह (सोमः) उत्तम गुणों से युक्त ज्ञानवान् पुरुष (दक्षाय) बलशाली कार्य को (साधनः) साधन करने वाला और (अयं) यह (शर्धाय) बल या ज्ञान के प्राप्त करने (वीतये) और कान्ति, दीप्ति या तेज प्राप्त करने के लिये यत्नवान् हो। (अयं) यह (देवेभ्यः) विद्वानों के हित के लिये (मधुमत्तरः) माधुर्य आदि गुणों से और अधिक युक्त होकर (सुतः) उत्पन्न या दीक्षित हैं। सोम के दृष्टान्त से स्नातक का वर्णन किया है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ (१) आकृष्टामाषाः (२, ३) सिकतानिवावरी च। २, ११ कश्यपः। ३ मेधातिथिः। ४ हिरण्यस्तूपः। ५ अवत्सारः। ६ जमदग्निः। ७ कुत्सआंगिरसः। ८ वसिष्ठः। ९ त्रिशोकः काण्वः। १० श्यावाश्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ अमहीयुः। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १६ मान्धाता यौवनाश्वः। १५ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १७ असितः काश्यपो देवलो वा। १८ ऋणचयः शाक्तयः। १९ पर्वतनारदौ। २० मनुः सांवरणः। २१ कुत्सः। २२ बन्धुः सुबन्धुः श्रुतवन्धुविंप्रबन्धुश्च गौपायना लौपायना वा। २३ भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। २४ ऋषि रज्ञातः, प्रतीकत्रयं वा॥ देवता—१—६, ११–१३, १७–२१ पवमानः सोमः। ७, २२ अग्निः। १० इन्द्राग्नी। ९, १४, १६, इन्द्रः। १५ सोमः। ८ आदित्यः। २३ विश्वेदेवाः॥ छन्दः—१, ८ जगती। २-६, ८-११, १३, १४,१७ गायत्री। १२, १५, बृहती। १६ महापङ्क्तिः। १८ गायत्री सतोबृहती च। १९ उष्णिक्। २० अनुष्टुप्, २१, २३ त्रिष्टुप्। २२ भुरिग्बृहती। स्वरः—१, ७ निषादः। २-६, ८-११, १३, १४, १७ षड्जः। १-१५, २२ मध्यमः १६ पञ्चमः। १८ षड्जः मध्यमश्च। १९ ऋषभः। २० गान्धारः। २१, २३ धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मा जनानां कमुपकारं करोतीत्याह।

    पदार्थः

    (साधनः) सिद्धिप्रदाता (अयम्) एषः पवमानः सोमः पवित्रयिता परमेश्वरः (दक्षाय) आत्मबलाय भवति। (अयम्) एषः परमेश्वरः (शर्धाय) उत्साहाय (वीतये) जनानां प्रगतये च भवति। (सुतः) ध्यातः (अयम्) एषः (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः सदाचारिभ्यः उपासकेभ्यः (मधुमत्तरः) अतिशयेन मधुरो भवति ॥३॥

    भावार्थः

    श्रद्धयोपासितः परमेश्वर उपासकायात्मबलमुत्साहं प्रगतिं वाचि कर्मणि व्यवहारे च माधुर्यं प्रयच्छति ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०५।३, ‘मधु॑मत्तमः’ इति पाठः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    A learned person is the accomplisher of mighty deeds, a striver after the acquisition of knowledge and glory. He is equipped with extreme sweetness for the welfare of scholars.

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    Meaning

    This is the means to efficiency for perfection, this is for strength and success for fulfilment, and when it is realised, it is the sweetest, most honeyed experience for the divines. (Rg. 9-105-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अयं सुतः) એ સાક્ષાત્ થઈને શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (देवेभ्यः मधुमत्तरः) મુમુક્ષુજનોને માટે અત્યંત મધુરરસ રૂપ છે, (अयं दक्षाय साधनः) એ સમૃદ્ધિને સાધનાર છે, (अयं शर्धाय वीतये) એ બળ-આત્મબળને સાધનાર અને કામપૂર્તિને સાધનાર છે. [પરમ સાધન છે.] (૩)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    श्रद्धेने उपासित केलेला ईश्वर उपासकाला आत्मबल, उत्साह, प्रगती, वाणी कर्म आणि व्यवहारात मधुरता प्रदान करतो. ॥३॥

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