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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 112
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
2
य꣡जि꣢ष्ठं त्वा ववृमहे दे꣣वं꣡ दे꣢व꣣त्रा꣡ होता꣢꣯र꣣म꣡म꣢र्त्यम् । अ꣣स्य꣢ य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ सु꣣क्र꣡तु꣢म् ॥११२॥
स्वर सहित पद पाठय꣡जि꣢꣯ष्ठम् । त्वा꣣ । ववृमहे । देव꣢म् । दे꣢वत्रा꣢ । हो꣡ता꣢꣯रम् । अ꣡म꣢꣯र्त्यम् । अ । म꣣र्त्यम् । अस्य꣢ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । सुक्र꣡तु꣢म् । सु꣣ । क्र꣡तु꣢꣯म् ॥११२॥
स्वर रहित मन्त्र
यजिष्ठं त्वा ववृमहे देवं देवत्रा होतारममर्त्यम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥११२॥
स्वर रहित पद पाठ
यजिष्ठम् । त्वा । ववृमहे । देवम् । देवत्रा । होतारम् । अमर्त्यम् । अ । मर्त्यम् । अस्य । यज्ञस्य । सुक्रतुम् । सु । क्रतुम् ॥११२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 112
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा को वरने का विषय है।
पदार्थ
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे अग्रणी परब्रह्म परमात्मन् ! (यजिष्ठम्) अतिशयरूप से सृष्टियज्ञ के विधाता, सुख-ऐश्वर्य आदि के दाता, सूर्य-पृथिवी आदि का परस्पर संगम करानेवाले, (देवत्रा देवम्) प्रकाशक सूर्य, बिजली, चन्द्रमा आदि तथा चक्षु, श्रोत्र, मन आदि में सर्वश्रेष्ठ प्रकाशक (होतारम्) मोक्षसुख के प्रदाता, (अमर्त्यम्) अमरणशील, (अस्य यज्ञस्य) इस मेरे ध्यान-यज्ञ के (सुक्रतुम्) सुसंचालक, सफलताप्रदायक (त्वा) आपको, हम (ववृमहे) उपास्य रूप से वरण करते हैं ॥६॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे अग्रगन्ता वीरपुरुष ! (यजिष्ठम्) अतिशय परोपकार-यज्ञ करनेवाले, (देवत्रा देवम्) दिव्यगुणयुक्त मनुष्यों में विशेषरूप से दिव्य गुणोंवाले, (होतारम्) प्रजाओं को सुख देनेवाले (अमर्त्यम) अमर कीर्तिवाले, (अस्य यज्ञस्य) इस राष्ट्रयज्ञ के (सुक्रतुम्) सुकर्ता (त्वा) तुझे, हम प्रजाजन (ववृमहे) राजा के पद के लिए चुनते हैं ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। देवं, देव में छेकानुप्रास है ॥६॥
भावार्थ
जैसे प्रजाजनों को दिव्य गुण-कर्म-स्वभाववाले परमेश्वर का उपास्य रूप में वरण करना चाहिए, वैसे ही वीर, परोपकारी, श्लाघ्य गुणोंवाले, सुखप्रदाता, कीर्तिमान्, सुशासक, शत्रु-विजेता पुरुष को राजा के पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए चुनना चाहिए ॥६॥
पदार्थ
(अस्य यज्ञस्य) इस अध्यात्म यज्ञ के (सुक्रतुम्-यजिष्ठम्) सुप्रज्ञानवान्—“क्रतुः प्रज्ञानाम” [निघं॰ ३.९] अतिशय से यष्टा ब्रह्मा (देवत्रा देवम्) देवों में देव—सर्वोत्तम देव—वर देने वालों में अधिक वर देने वाले (अमर्त्यं-होतारम्) मनुष्य से भिन्न अमर अविनाशी होमने वाले—ऋत्विक् स्थानीय (त्वा) तुझ ज्योतिः-स्वरूप परमात्मा को (ववृमहे) वरते हैं—स्वीकार करते हैं अपनाते हैं।
भावार्थ
हमारे अध्यात्म यज्ञ का उत्तम ऋत्विक् और ब्रह्मा भी देवों में देव इष्ट वरदान देने वाला परमात्मा ही है उसे हम सदा वरते रहें॥६॥
विशेष
ऋषिः—सौभरिः कण्वः (परमात्माग्नि को अपने अन्दर भरण धारण करने में कुशल मेधावी जन)॥<br>
विषय
यजिष्ठ प्रभु के वरण का लाभ
पदार्थ
सोभरि काण्व प्रार्थना करता है कि हम (यजिष्ठम्) = दान देनेवालों में सर्वश्रेष्ठ (त्वा) = तुझे [प्रभु को] (ववृमहे) = वरते हैं। इस जीवन यात्रा में जिसने प्रभु को वरा वही 'काण्व'=मेधावी है। प्रकृति का वरण बुद्धिमत्ता नहीं; यह घाटे का सौदा है। इसमें क्षणिक आनन्द के लिए हम अपनी इन्द्रिय शक्तियों को जीर्ण कर लेते हैं और अपने ज्ञान को क्षीण करनेवाले बनते हैं, किन्तु सोभरि-जीवन यात्रा का भरण करनेवाला है इसलिए वह प्रभु का वरण करता है।
वे प्रभु यजिष्ठ हैं। यजिष्ठ शब्द का ही व्याख्यान मन्त्र में इस प्रकार करते हैं कि (देवत्रा) = देवों में भी (देवम्) = वह प्रभु देव हैं। ('देवो दानात्') = देव देता है। सूर्यादि प्रकाशादि देने से देव हैं। प्रभु महान् देव हैं और सब देवों की देने की शक्ति सीमित है- प्रभु की दानशक्ति असीम है। (होतारम्)=प्रभु तो जीव के हित के लिए अपनी आहुति दे देनेवाले हैं। ('आत्मदा')=अपने को दे देनेवाले हैं।
जो व्यक्ति इस प्रभु का वरण करता है वह भी अपने जीवन को ऐसा ही बनाता है। यजिष्ठ के वरण का अभिप्राय यही तो है कि यह वरण करनेवाला भी यजिष्ठ बनने का निश्चय करता है। यह अधिक-से-अधिक दान देनेवाला बनता है। इसका लाभ यह होता है कि (अमर्त्यम्) = प्रभु तो न मरनेवाले हैं ही, दान देनेवाला भी अमर हो जाता है। अमर्त्य की भावना यह भी है कि इस त्यागवृत्ति के कारण भोगों का शिकार न होकर वह रोगों में नहीं फँसता। वह स्वाभाविक मृत्यु से ही शरीर छोड़ता है।
वे प्रभु (अस्य यज्ञस्य) = इस ब्रह्माण्ड - यज्ञ के (सुक्रतुम्) = उत्तम कर्त्ता हैं। प्रभु की अपनी आवश्यकताएँ नहीं, इसी का परिणाम है कि वे ब्रह्माण्ड - यज्ञ को उत्तम प्रकार से चला रहे हैं, हम भी अपनी आवश्यकताओं को कम करेंगे तो अपने जीवन-यज्ञ के उत्तम कर्त्ता बन पाएँगे।
भावार्थ
हम देनेवाले बनकर अमर्त्य बनें और जीवन-यज्ञ को उत्तम विधि से पूर्ण करें।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( यजिष्ठं ) = दान आदि करने हारे, सर्वोपास्य ( देवत्रा देवं ) = देवों के देव, ( होतारम् ) = सब पदार्थों के दाता ( अमर्त्यं ) = अविनाशी मरणरहित, ( अस्य यज्ञस्य ) = इस जीवनयज्ञ के ( सुऋतुम् ) = उत्तम प्रकार से सम्पादन करने हारे ( त्वा ) = तुझ को ( ववृमहे ) = हम वरण करते हैं, तेरा भजन करते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - सौभरि: ।
छन्दः - ककुप् ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनो नृपतेश्च वरणविषयमाह।
पदार्थः
प्रथमः—परमात्मपरः। हे अग्ने अग्रणीः परब्रह्म परमात्मन् ! (यजिष्ठम्) अतिशयेन यष्टारम् सृष्टियज्ञविधातारं, सुखैश्वर्यादीनां दातारं, द्यावापृथिव्यादीनां सङ्गमयितारम्। अतिशयेन यष्टा यजिष्ठः। यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु। तृजन्ताद् अतिशायने इष्ठनि तुरिष्ठेमेयस्सु।’ अ० ६।४।१५४ इति तृचो लोपः। (देवत्रा देवम्) देवेषु प्रकाशकेषु सूर्यविद्युच्चन्द्रादिषु चक्षुःश्रोत्रमनआदिषु वा श्रेष्ठं प्रकाशकम्। देवत्रा देवेषु, सप्तम्यर्थे त्रा प्रत्ययः। (होतारम्) मोक्षसुखस्य प्रदातारम्, (अमर्त्यम्) अमरणधर्माणम्, (अस्य यज्ञस्य) एतस्य मदीयस्य ध्यानयज्ञस्य (सुक्रतुम्) सुसञ्चालकं सुसफलयितारम् (त्वा) त्वाम् वयम् (ववृमहे) उपास्यत्वेन वृण्महे। वृञ् वरणे, कालसामान्ये लिट् ॥६॥ अथ द्वितीयः—नृपतिपरः। हे अग्ने अग्रगन्तः वीरपुरुष ! (यजिष्ठम्) अतिशयेन यष्टारं, परोपकारिणम्, (देवत्रा देवम्) दिव्यगुणयुक्तेषु जनेषु विशेषेण दिव्यगुणयुक्तम्, (होतारम्) प्रजाभ्यः सुखप्रदातारम्, (अमर्त्यम्) कीर्त्या अमरणशीलम्, (अस्य यज्ञस्य) एतस्य राष्ट्रयज्ञस्य (सुक्रतुम्) सुकर्तारम् (त्वा) त्वाम्, (वयं) प्रजाजनाः (ववृमहे) राजपदाय वृण्महे ॥६॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। देवं, देव इत्यत्र छेकानुप्रासः ॥६॥
भावार्थः
यथा प्रजाजनैर्दिव्यगुणकर्मस्वभावः परमेश्वर उपास्यत्वेन वरणीयस्तथैव वीरः, परोपकारी, श्लाघ्यगुणः, सुखप्रदाता, कीर्तिमान्, सुशासकः, शत्रुविजेता पुरुषो राजपदे प्रतिष्ठापनाय वरणीयः ॥६॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।१९।३, साम० १४१३।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, We worship Thee, the greatest Donor, God amongst the gods, the Bestower of all objects. Immortal, the Fine Finisher of this sacrifice of life.
Meaning
We choose to worship you, Agni, most adorable, worthy of worship, self-refulgent lord over the divinities of existence, imperishable and eternal creator of the yajna of this universal order of the world. (Rg. 8-19-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अस्य यज्ञस्य) આ અધ્યાત્મયજ્ઞના (सुक्रतुं यजिष्ठम्) સુપ્રજ્ઞાવાન અતિશયથી યષ્ટા બ્રહ્મા (देवत्रा देवम्) દેવોમાં દેવ - સર્વોત્તમ દેવ - વર આપનારનાં અધિક વર આપનાર (अमर्त्यं होतारम्) મનુષ્યથી ભિન્ન અમર , અવિનાશી હોમનાર ઋત્વિક્ સ્થાનીય (त्वा) તારો જ્યોતિઃ-સ્વરૂપ પરમાત્માનો (ववृमहे) સ્વીકાર કરીએ છીએ. (૬)
भावार्थ
ભાવાર્થ : અમારા અધ્યાત્મયજ્ઞના શ્રેષ્ઠ ઋત્વિક્ અને બ્રહ્મા પણ દેવોમાં દેવ , ઈષ્ટ વરદાન આપનાર પરમાત્મા જ છે , તેને અમે સદા વરતા રહીએ - સ્વીકાર કરતા રહીએ. (૬)
उर्दू (1)
Mazmoon
آپ کو ہی ہم وَرن کرتے ہیں
Lafzi Maana
(یجشٹھم) اُپاسنا یگیوں کو سپھل کرنے والے (دیوترا دیوم) دیووں کے دیو (ہوتارم) سب پدارتھوں کے داتا (امرتیّم) اوناشی مرن شریر سے رہت امر (اسیہ یجسیہ) سب پرانیوں کے جیون یگیہ کو (سُوکرتم) شُبھ کرموں میں لگانے والے (تُوا) ہے پرمیشور! آپ کو (وِورمہی) ہم ورن کرتے ہیں۔ پُوجا کے یوگیہ مان کر دھارن کرتے ہیں۔
Tashree
ورن یوگیہ ہو سروجگت میں سب کے ہو جیون آدھار، دیووں کے ہو دیو امر سب یگیوں کے ہو کرنا دھار۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसे प्रजाजनांनी दिव्य गुण-कर्म-स्वभावाच्या परमेश्वराला उपास्यरूपात वरण केले पाहिजे, तसेच वीर, परोपकारी, प्रशंसनीय गुणांचा, सुखप्रदाता, कीर्तिमान, सुशासक, शत्रुविजेता पुरुषाला राजाच्या पदावर प्रतिष्ठित करण्यासाठी निवडले पाहिजे. ॥६॥
विषय
पुढील मंत्रात परमेश्वराचे आणि राजाचा स्वीकार वा अंगीकार करण्याविषयी वर्णन केले आहे -
शब्दार्थ
प्रथम अर्थ (परमात्म पर) - हे अग्रणी परब्रह्म परमात्मन्, (मजिष्ठम्), ओपण सृष्टिरूप यज्ञाचे विधाता, सुख ऐश्वर्यादी दाता, सूर्य- पृथ्वी आदींचे संचालन, संगमन करविणारे (देवत्रा देवम्) प्रकाशमान सूर्य, विद्युत, चंद्र आदींना प्रकाश देणारे तसेच नेत्र, कर्ण, मन आदींना सर्वोत्तम प्रकाश देणारे आहात. अशा (होतारम्) मोक्ष सुख प्रदाता व (अभर्त्यम्) अमर असलेल्या आपणाला (अस्य यज्ञस्य) या ध्यान- यज्ञाचे (सुक्रतुम्) सुसंचालक, साफल्य प्रदाता म्हणून (त्वा) आपला आम्ही (उपासक गण) (ववृमहे) उपास्य देव म्हणून स्वीकार करतो. ।। द्वितीय अर्थ - (राजापरक) हे अग्रगन्ता वीर पुरुष, (यजिष्ठम्) अतिशय परोपकार - यज्ञ करणाऱ्या (देवत्रा देवम्) दिव्यगुणयुक्त माणसात विशेषत्वाने अधिक गुण धारण करणाऱ्या (ोहतारम्) प्रजेला आनंद देणाऱ्या (अमर्त्यम्) अमर कीर्ती असलेल्या (त्वा) आपणास आम्ही प्रजानन (अस्य यज्ञस्य) या राष्ट्र यज्ञाचे (सुक्रतुम्) संचालक वा सुकर्ता म्हणून (ववृमहे) राजा पदासाठी निवडतो वा आपला स्वीकार करतो. ।। ६।। या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ङ्गदेवं देवफ येथे छेकानुप्रास आहे. ।। ६।।
भावार्थ
जसे प्रजाजनांनी दिव्य गुण - कर्म- स्वभाव असलेल्या परमेश्वराला उपास्य देव म्हणून स्वीकारले पाहिजे, तद्वतच वीर परोपकारी, श्लाघ्य गुणवान, सुख प्रदाता, कीर्ती मान, सुशासक, शत्रु विजेता पुरुषाला राजा - पदावर अधिष्ठित करण्यासाठी निवडले पाहिजे. ।। ६।।
तमिल (1)
Word Meaning
யக்ஞத்தில் சிறந்தவனாய் தேவர்களின் நடுவில் திவ்யனாய் குதூகலமளிப்பவனாய் நாசமன்னியிலுள்ள நல்ல செயல்களை முடிப்பவனான உன்னை பஜிக்கிறோம்.
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