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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1154
    ऋषिः - सिकता निवावरी देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
    3

    आ꣡ नः꣢ सोम सं꣣य꣡तं꣢ पि꣣प्यु꣢षी꣣मि꣢ष꣣मि꣢न्दो꣣ प꣡व꣢स्व꣣ प꣡व꣢मान ऊ꣣र्मि꣡णा꣢ । या꣢ नो꣣ दो꣡ह꣢ते꣣ त्रि꣢꣫रह꣣न्न꣡स꣢श्चुषी क्षु꣣म꣡द्वाज꣢꣯व꣣न्म꣡धु꣢मत्सु꣣वी꣡र्य꣢म् ॥११५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । नः꣣ । सोम । सं꣡यत꣢म् । स꣣म् । य꣡त꣢꣯म् । पि꣣प्यु꣡षी꣢म् । इ꣡ष꣢꣯म् । इ꣡न्दो꣢꣯ । प꣡व꣢꣯स्व । प꣡व꣢꣯मानः । ऊ꣣र्मि꣡णा꣢ । या । नः꣣ । दो꣡ह꣢꣯ते । त्रिः । अ꣡ह꣢꣯न् । अ । ह꣣न् । अ꣡स꣢꣯श्चुषी । अ । स꣣श्चुषी । क्षुम꣢त् । वा꣡ज꣢꣯वत् । म꣡धु꣢꣯मत् । सु꣣वी꣡र्य꣢म् । सु꣣ । वी꣡र्य꣢꣯म् ॥११५४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नः सोम संयतं पिप्युषीमिषमिन्दो पवस्व पवमान ऊर्मिणा । या नो दोहते त्रिरहन्नसश्चुषी क्षुमद्वाजवन्मधुमत्सुवीर्यम् ॥११५४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नः । सोम । संयतम् । सम् । यतम् । पिप्युषीम् । इषम् । इन्दो । पवस्व । पवमानः । ऊर्मिणा । या । नः । दोहते । त्रिः । अहन् । अ । हन् । असश्चुषी । अ । सश्चुषी । क्षुमत् । वाजवत् । मधुमत् । सुवीर्यम् । सु । वीर्यम् ॥११५४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1154
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे (इन्दो) तेजस्वी, आनन्द-रस से भिगोनेवाले, (पवमान) पवित्रतादायक, (सोम) रस के भण्डार, जगत्स्रष्टा परमात्मन् ! आप (नः) हमारे लिए (संयतम्) सुबद्ध, (पिप्युषीम्) अतिशय समृद्ध (इषम्) अभीष्ट सम्पत्ति को (ऊर्मिणा) तरङ्गरूप में (पवस्व) प्रवाहित कीजिए, (या) जो सम्पत्ति (असश्चुषी) बिना प्रतिबन्ध के (नः) हमारे लिए (अहन्) दिन में (त्रिः) तीन बार अर्थात् सोमयाग के तीनों सवनों में (क्षुमत्) निवासगृह से युक्त, (वाजवत्) अन्न, धन, विज्ञान से युक्त, (मधुमत्) मधुर (सुवीर्यम्) श्रेष्ठ वीरता से युक्त फल को (दोहते) दुहे, प्रदान करे ॥३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर की कृपा से हम पुरुषार्थी लोग अधिकाधिक भौतिक और आध्यात्मिक सम्पत्ति प्राप्त करें ॥३॥

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    पदार्थ

    (इन्दो सोम) हे आनन्दरसम्पूर्ण शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (ऊर्मिणा पवमानः) धारारूप से होता हुआ (नः) हमारे लिये (संयतं पिष्युषीम्-इषम्-आ पवस्व) स्थायी समृद्ध करने वाली एषणीय—कमनीय स्वसङ्गति को प्राप्त करा (या) जो (अह न-त्रिः) प्रतिदिन तीन क्रम वाली—स्तुति प्रार्थना उपासना वाली (असश्चुषी) अचल—अविनाशी—प्रतिबन्धरहित (नः) हमारे लिये (क्षुमत्-वाजवत्-मधुमत् सुवीर्यं दोहते) निवासवाले*90 अमृत अन्नवाले*91 मधुर शोभन आत्मबल को दूहती है—प्राप्त करती है॥३॥

    टिप्पणी

    [*90. “क्षि निवासे” [तुदादि॰] ततो डुक्-औणादिको बाहुलकरत् क्षुः, मतुपि क्षुमत्।] [*91. “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै॰ २.१९३]।]

    विशेष

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    विषय

    उत्तम प्रेरणा

    पदार्थ

    हे (इन्दो) = शक्ति देनेवाले (पवमान) = पवित्रता का सम्पादन करनेवाले सोम! (नः) = हमें (ऊर्मिणा) = अपनी ऊर्ध्वगति के द्वारा (संयतम्) = आत्मसंयमवाली (पिप्युषीम्) = वृद्धि की कारणभूत (इषम्) = प्रेरणा (आपवस्व) = प्राप्त कराओ। शरीर में उत्पन्न शक्ति जब ऊर्ध्वगतिवाली होती है तब हमारे मनों में आत्मसंयम की भावना को जन्म देती है और शरीर की वृद्धि का कारण बनती है। सोम की ऊर्ध्वगति से होनेवाली (या) = जो प्रेरणा (असश्चुषी) = पराजित न होती हुई (न:) = हमारे अन्दर (अहन्) = दिन में (त्रि:) = तीन बार, अर्थात् प्रातः, मध्याह्न व सायं (सुवीर्यम्) = उस उत्तम शक्ति को (दोहते) = प्रपूरित करती है, जो शक्ति (क्षुमत्) = उत्तम अन्नवाली है, अर्थात् सात्त्विक अन्न के सेवन से उत्पन्न हुई है, (वाजवत्) = उत्तम ज्ञान व क्रियावाली है—जिस शक्ति से हमारे अन्दर उत्तम ज्ञान व कर्म की भावना उत्पन्न होती है और (मधुमत्) = जो शक्ति माधुर्यवाली है, अर्थात् इस प्रेरणा को प्राप्त करके हम सात्त्विक अन्न का सेवन करते हैं, उत्तम ज्ञानवाले बनते हैं, उत्तम क्रियावाले होते हैं और हमारा जीवन माधुर्य को लिये हुए होता है।

    भावार्थ

    सुरक्षित सोम हमें उत्तम प्रेरणा प्राप्त करानेवाला हो ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मानं प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे (इन्दो) तेजस्विन्, आनन्दरसेन क्लेदक, (पवमान) पवित्रतादायक (सोम) रसागार जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (संयतम्) सुबद्धाम्, (पिप्युषीम्) अतिशयेन प्रवृद्धाम् (इषम्) अभीष्टसंपत्तिम् (ऊर्मिणा) तरङ्गेण (पवस्व) प्रवाहय, (या) सम्पत्तिः (असश्चुषी) अप्रतिबन्धा सती। [सश्चतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४।] (नः) अस्मभ्यम् (अहन्) अहनि (त्रिः) त्रिवारम्, सोमयागस्य त्रिष्वपि सवनेषु (क्षुमत्) निवासगृहयुक्तम्, (वाजवत्) अन्नधनविज्ञानयुक्तम्, (मधुमत्) मधुरम्, (सुवीर्यम्) सुवीर्योपेतं फलम् (दोहते) दुग्धाम्। [दुह प्रपूरणे, लेट्] ॥३॥

    भावार्थः

    परमेश्वरकृपया पुरुषार्थिनो वयम् प्रचुरप्रचुरां भौतिकीमाध्यात्मिकीं च सम्पदं प्राप्नुयाम ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।८६।१८, ‘संयन्तं॑’, ‘पव॑मानो अ॒स्रिध॑म्’ इति पाठः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Glorious, All-pervading God, grant us the Well-organised and ever-growing prosperity, which shall yield us ceaselessly thrice a day, glory, knowledge, happiness and strength!

    Translator Comment

    Thrice a day: in the morning, at noon and in the evening.

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    Meaning

    O Soma, lord of light, Indu, spirit of beauty and bliss, pure and purifying divinity, bless us with controlled and well directed ever increasing food and energy, knowledge and culture of imperishable character and value which may for all time past, present and future without error, violence, violation or obstruction bring us and continue to bring for us honour, dignity and heroic courage and forbearance full of energy, excellence and sweetness. (Rg. 9-86-18)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्दो सोम) હે આનંદરસપૂર્ણ શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (ऊर्मिणा पवमानः) તું ધારારૂપ થઈને (नः) અમારે માટે (संयतं पिष्युषीम् इषम् आ पवस्व) સ્થાયી સમૃદ્ધ કરનારી એષણીય-ઇચ્છનીય સ્વસંગતિને પ્રાપ્ત કરાવ. (या) જે (अह न त्रिः) પ્રતિદિન ત્રણ ક્રમવાળી સ્તુતિ, પ્રાર્થના, ઉપાસનાવાળી (असश्चुषी) અચલ-અવિનાશી-પ્રતિબંધ રહિત (नः) અમારે માટે (क्षुमत् वाजवत् मधुमत् सुवीर्यं दोहते) નિવાસવાળા, અમૃત અન્નવાળા, મધુર શોભન આત્મબળનું દોહન કરે છે-પ્રાપ્ત કરે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या कृपेने आम्ही पुरुषार्थी लोकांनी अधिकाधिक भौतिक व आध्यात्मिक संपत्ती प्राप्त करावी. ॥३॥

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