Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1176
ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
4
ऋ꣣षि꣢मना꣣ य꣡ ऋ꣢षि꣣कृ꣢त्स्व꣣र्षाः꣢ स꣣ह꣡स्र꣢नीथः पद꣣वीः꣡ क꣢वी꣣ना꣢म् । तृ꣣ती꣢यं꣣ धा꣡म꣢ महि꣣षः꣡ सिषा꣢꣯स꣣न्त्सो꣡मो꣢ वि꣣रा꣢ज꣣म꣡नु꣢ राजति꣣ ष्टु꣢प् ॥११७६॥
स्वर सहित पद पाठऋ꣡षि꣢꣯मनाः । ऋ꣡षि꣢꣯ । म꣣नाः । यः꣢ । ऋ꣣षिकृ꣢त् । ऋ꣣षि । कृ꣢त् । स्व꣣र्षाः꣢ । स्वः꣣ । साः꣢ । स꣣ह꣡स्र꣢नीथः । स꣣ह꣡स्र꣢ । नी꣣थः । पदवीः꣢ । प꣣द । वीः꣢ । क꣣वीना꣢म् । तृ꣣ती꣡य꣢म् । धा꣡म꣢꣯ । म꣣हिषः꣢ । सि꣡षा꣢꣯सन् । सो꣡मः꣢꣯ । वि꣡रा꣡ज꣢म् । वि꣣ । रा꣡ज꣢꣯म् । अ꣡नु꣢꣯ । रा꣣जति । स्तु꣢प् ॥११७६॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋषिमना य ऋषिकृत्स्वर्षाः सहस्रनीथः पदवीः कवीनाम् । तृतीयं धाम महिषः सिषासन्त्सोमो विराजमनु राजति ष्टुप् ॥११७६॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋषिमनाः । ऋषि । मनाः । यः । ऋषिकृत् । ऋषि । कृत् । स्वर्षाः । स्वः । साः । सहस्रनीथः । सहस्र । नीथः । पदवीः । पद । वीः । कवीनाम् । तृतीयम् । धाम । महिषः । सिषासन् । सोमः । विराजम् । वि । राजम् । अनु । राजति । स्तुप् ॥११७६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1176
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा के गुण-कर्मों का वर्णन है।
पदार्थ
(यः) जो (ऋषिमनाः) ऋषि स्वभाववाला, (ऋषिकृत्) उपासकों को ऋषि बनानेवाला, (स्वर्षाः) आनन्दप्रदाता, (सहस्रनीथः) सहस्र नीतियोंवाला, (कवीनाम्) क्रान्तदर्शियों को (पदवीः) उच्च पद प्राप्त करानेवाला है, वह (महिषः) महान्, (स्तुप्) सबका आधारस्तम्भरूप (सोमः) जगदीश्वर (तृतीयं धाम) मुक्ति पद को (सिषासन्) देना चाहता हुआ (विराजम्) विशेष तेज से युक्त मनुष्य को (अनुराजति) अनुरञ्जित करता है ॥२॥ यहाँ ऋषि की आवृत्ति में लाटानुप्रास तथा राज की आवृत्ति में यमक अलङ्कार है ॥२॥
भावार्थ
जो परमेश्वर ऋषिपद प्राप्त कराकर मोक्ष देता है, उसकी उपासना करके सब सौभाग्यवान् होवें ॥२॥
पदार्थ
(यः) जो शान्तस्वरूप परमात्मा (ऋषिमनाः) ऋषियों—द्रष्टा उपासकों का मन जिस में है ऐसा (ऋषिकृत्) निजदर्शन से ऋषियों का बनानेवाला (स्वर्षा) मोक्ष का सम्भागी बनाने वाला (सहस्रनीथः) सब का*8 नेता (कवीनां पदवीः) ऋषियों का पदवेत्ता*9 स्वरूप ज्ञाता (महिषः) महान्*10 (तृतीयं धाम) स्वः-मोक्षधाम को (सिषासन्) उपयुक्त करने—प्राप्त कराने की इच्छा रखता हुआ (विराजम्- अनु) स्तुति वाणी को लक्ष्य कर*11 उसके साथ (स्तुप् सोमः-विराजति) स्तुतियोग्य*12 शान्तस्वरूप परमात्मा उपासक आत्मा के अन्दर विराजमान होता है॥२॥
टिप्पणी
[*8. “सर्वं वै सहस्रम्” [श॰ ४.१.५.१५]।] [*9. “ऋषयः कवयः” [मै॰ ४.१.२]।] [*10. “महिषो महन्नाम” [निघं॰ ३.१]।] [*11. “वाग्वै विराट्” [मै॰ २.३.१०]।] [*12. “स्तोभति-अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१] कर्मणि क्विप्।]
विशेष
<br>
विषय
प्रभु की दीप्ति से दीप्तिवाला
पदार्थ
प्रतर्दन=वासनाओं को कुचलनेवाले दैवोदासि:=प्रभु के दास का जीवन कैसा होता है१. (ऋषिमना:) = [ऋषीणां मन इव मनो यस्य] इसका मन ऋषियों के मन के तुल्य होता है, अर्थात् इसकी मनोवृत्ति सदा ज्ञान-प्रवण होती है । ऋषियों के समान यह तत्त्वद्रष्टा बनने का प्रयत्न करता है ।
२. (यः) = जो (ऋषिकृत्) - [ऋषि:वेदः] वेदार्थ का करनेवाला बनता है । सदा वेद का अध्ययन करता है और वेदाध्ययन करता हुआ वेदनिहित अर्थ को देखने के लिए प्रयत्नवान् होता है । ३. स्वर्षाः=[स्वः सुनते] प्रकाश को प्राप्त होता है । सतत वेदाभ्यास से इस के अन्दर ज्ञान का सूर्य उदय होता है ।
४. (सहस्त्रनीथः) = [नीथ=guidance] शतश: पथ-प्रदर्शनवाला यह होता है, क्योंकि यह सब स्थानों से उत्तमता के ग्रहण की वृत्तिवाला बनता है, परिणामतः यह सभी से उत्तम उपदेश ग्रहण करता है । सायणाचार्य के अनुसार यह शतशः स्तुतियोंवाला होता है— सदा प्रभु-स्वतन करता है।
५. (कवीनां पदवी:) = तत्त्वदर्शियों के मार्ग पर चलनेवाला बनता है ।
६. (महिषः) = [मह पूजायाम्] सदा प्रभु-पूजन करता हुआ यह (तृतीयं धाम) = प्रभुरूप तीर्णतम [सर्वाधिक] ज्योति को (सिषासन्) = प्राप्त करने की इच्छा करता हुआ—
७. (सोमः) = यह अत्यन्त विनीत बनता है 'नम्रत्वेनोन्नमन्त: ' = नम्रता से ही तो इसने उस उन्नत स्थान पर पहुँचना है।
८. (ष्टुप्) = यह सदा प्रभु की स्तुति करता है और लोगों से स्तुति किया जाता है, इस प्रकार ९. (विराजम्) = उस विशेष दीप्तिवाले प्रभु की (अनुराजति) = दीप्ति से दीप्तिवाला होता है । इसके जीवन में प्रभु का प्रकाश होता है ।
भावार्थ
हम ऋषिमना बनकर प्रभु की दीप्ति को प्राप्त करें ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनो गुणकर्माणि वर्णयति।
पदार्थः
(यः ऋषिमनाः) ऋषिस्वभावः, (ऋषिकृत्) उपासकान् ऋषीन् करोतीति सः, (स्वर्षाः) आनन्दप्रदाता, (सहस्रनीथः) सहस्रनीतिः, (कवीनाम्) क्रान्तदर्शिनाम् (पदवीः) उच्चपदं प्रापयिता अस्ति, सः (महिषः) महान्, (स्तुप्) सर्वेषामाधारस्तम्भभूतः। [स्तुभु स्तम्भे, भ्वादिः।] (सोमः) जगदीश्वरः (तृतीयं धाम) मुक्तिपदम्। [प्रथमं धाम प्रकृतिः, द्वितीयं धाम जीवात्मा, तृतीयं च मोक्षः।] (सिषासन्) दातुमिच्छन्। [षणु दाने, सनि शत्रन्तः।] (विराजम्) विशेषेण दीप्तिमन्तं जनम् (अनुराजति) अनुरञ्जयति। [राजृ दीप्तौ, अत्र रञ्जनकर्मा] ॥२॥ अत्र ‘ऋषि’ इत्यस्यावृत्तौ लाटानुप्रासः, ‘राज’ इत्यस्यावृत्तौ च यमकम् ॥२॥
भावार्थः
यः परमेश्वरः जनानृषिपदं प्रापय्य मोक्षं प्रयच्छति तमुपास्य सर्वे सौभाग्यवन्तो जायन्ताम् ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।९६।१८।
इंग्लिश (2)
Meaning
He is a great man, who is Rishi-minded, Rishi-maker, the seer of the secrets of things, the eulogiser of God in a thousand ways, and the bestower of knowledge to the intellectual. The soul longing for emancipation, attaining to the third stage of salvation, singing the praise of God, acquires bliss through His grace.
Meaning
Soma is the presence that is the universal seer and poetic creator, maker of poets, exalted by sages, shower streams of bliss, adored a thousand ways for infinite power and glory, ultimate love and desire of poets, awful refulgence radiating to the third blazing space beyond the earthly and paradisal regions of life, the presence that rules and illuminates the heart and soul beyond the state of existential involvement, the one loving, blessing, beatific ultimate object of adoration and worship. (Rg. 9-96-18)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यः) જે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (ऋषिमनाः) ઋષિઓ-દ્રષ્ટા ઉપાસકોનાં મન જેમાં છે એવા (ऋषिकृत्) નિજદર્શનથી ઋષિઓને બનાવનાર (स्वर्षा) મોક્ષના સહભાગી બનાવનાર (सहस्रनीथः) સર્વના નેતા (कवीनां पदवीः) ૠષિઓના પદવેત્તા-સ્વરૂપજ્ઞાતા (महिषः) મહાન (तृतीयंधाम) પોતાના મોક્ષધામને (सिषासन्) ઉપયુક્ત કરવા-પ્રાપ્ત કરાવવાની ઇચ્છા રાખતાં (विराजम् अनु) સ્તુતિ વાણીને લક્ષ્ય કરીને તેની સાથે (स्तुप् सोमः विराजति) સ્તુતિ યોગ્ય શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા ઉપાસકના આત્માની અંદર વિરાજમાન થાય છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जो परमेश्वर ऋषिपद प्राप्त करवून मोक्ष देतो, त्याची उपासना करून सर्वांनी सौभाग्यवान व्हावे. ॥२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal