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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1197
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    अ꣣भि꣡ विप्रा꣢꣯ अनूषत꣣ गा꣡वो꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न धे꣣न꣡वः꣢ । इ꣢न्द्र꣣ꣳ सो꣡म꣢स्य पी꣣त꣡ये꣢ ॥११९७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣भि꣢ । वि꣡प्राः꣢꣯ । वि । प्राः꣣ । अनूषत । गा꣡वः꣢꣯ । व꣣त्स꣢म् । न । धे꣣न꣡वः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । सो꣡म꣢꣯स्य । पी꣣त꣡ये꣢ ॥११९७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि विप्रा अनूषत गावो वत्सं न धेनवः । इन्द्रꣳ सोमस्य पीतये ॥११९७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । विप्राः । वि । प्राः । अनूषत । गावः । वत्सम् । न । धेनवः । इन्द्रम् । सोमस्य । पीतये ॥११९७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1197
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि स्तोता लोग किस प्रकार क्या करते हैं।

    पदार्थ

    (विप्राः) बुद्धिमान् स्तोताजन (सोमस्य) ब्रह्मानन्द-रस के (पीतये) पान के लिए (इन्द्रम्) जीवात्मा को (अभि अनूषत) बुलाते हैं, (धेनवः) तृप्ति प्रदान करनेवाली (गावः) गौएँ अपना दूध पिलाने के लिए (वत्सं न) जैसे बछड़े को बुलाती हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे बछड़ा अपनी माता गाय का दूध पीकर तृप्त हो जाता है, वैसे ही उपासक लोग परमात्मा के आनन्द-रस को पीकर परम तृप्ति पाते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (विप्राः-अभि-अनूषत) हे ब्राह्मणो—ब्रह्म के उपासकजनो४ तुम सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा की स्तुति—उपासना५ करो (धेनवः-गावः-वत्सं न) जैसे दुधारी गौवें बछड़े को प्रशंसित करती हैं, पास जाती हैं [इन्द्रं६ (‘इन्द्राय’) सोमपीतये] आत्मा को सोम-शान्तस्वरूप परमात्मा का पान-अनुभव कराने के लिए॥२॥

    विशेष

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    विषय

    इन्द्र-स्तवन

    पदार्थ

    (विप्राः) = अपना विशेषरूप से पूरण करने की कामनावाले, अपनी न्यूनताओं को दूर करने की प्रबल इच्छावाले व्यक्ति (इन्द्रम्) = सब ऐश्वर्यों को अधिष्ठाता प्रभु का (अभि अनूषत) = दोनों ओर, अर्थात् सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते स्तवन करते हैं। प्रभु से ये ऐसा ही प्रेम करते हैं न-जैसेकि (धेनवः) = दुधारू गौएँ (वत्सम्) = बछड़े से प्रेम करती हैं। गौवों का बछड़े के प्रति प्रेम अनुपम है, विप्र लोगों का प्रभु के प्रति ऐसा ही प्रेम होता है तभी तो उसकी भक्ति में वे तन्मय हो जाते हैं और रसमय वाणी से उसका स्तवन करते हैं। ऐसा ये सोमस्य पीतये-सोम के पान के लिए करते हैं । शरीर के अन्दर रसादि क्रम से उत्पन्न सोम की रक्षा – उसका शरीर में ही पान करना प्रभुस्तवन के बिना सम्भव नहीं । वासनामय जगत् सोमपान के लिए अत्यन्त दूषित है— इस सोम का पान तो वासना- विनाश से ही सम्भव है । वासना- विनाश के लिए प्रभु-स्मरण अचूक औषध है ।

    भावार्थ

    प्रभु-स्तवन मेरी वासनाओं को विनष्ट करके मुझे सोमपान के योग्य बनाता है। इस सोमपान से मेरा शरीर नीरोग बनता है । मन निर्मल होता है और बुद्धि तीव्र होती है । इस प्रकार मेरा पूरण होता है और मैं 'विप्र' बनता हूँ ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ स्तोतारः कथं किं कुर्वन्तीत्याह।

    पदार्थः

    (विप्राः) मेधाविनः स्तोतारः (सोमस्य) ब्रह्मानन्दरसस्य (पीतये) पानाय (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (अभि अनूषत) आह्वयन्ति। कथमिव ? (धेनवः) प्रीणयित्र्यः (गावः) पयस्विन्यः, स्वकीयं पयः पाययितुम् (वत्सं न) यथा वत्सम् आह्वयन्ति तद्वत् ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    यथा वत्सः स्वकीयाया मातुर्दुग्धं पीत्वा तृप्तो जायते तथैवोपासका जनाः परमात्मन आनन्दरसं पीत्वा परमां तृप्तिं लभन्ते ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१२।२, ‘धेनवः’ इत्यत्र ‘मा॒तरः॑’।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Sages invoke God for drinking the juice of knowledge, as milch-kine low to their calves.

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    Meaning

    Just as mother cows low for the calf so do the sages invoke and glorify Indra, lord of soma, beauty, joy and excellence, so that the lord may bless them with his presence and be happy with their songs of love and adoration. (Rg. 9-12-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (विप्राः अभि अनूषत) હે બ્રાહ્મણો-બ્રહ્મના ઉપાસકજનો ! તમે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માની સ્તુતિ-ઉપાસના કરો. (धेनवः गावः वत्सं न) જેમ દૂઝણી ગાયો પોતાનાં વાછરડાને દૂધ પીવડાવવા જાય છે. (इन्द्रं "इन्द्राय" सोम पीतये) આત્માને સોમ શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માનું પાન-અનુભવ કરાવવા માટે, [જાય છે.] (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे वासरू आपल्या माता गाईचे दूध पिऊन तृप्त होते, तसेच उपासक लोक परमात्म्याचा आनंदरस प्राशन करून परम तृप्त होतात. ॥२॥

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