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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1218
ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
उ꣣त꣢꣫ त्या ह꣣रि꣢तो꣣ र꣢थे꣣ सू꣡रो꣢ अयुक्त꣣ या꣡त꣢वे । इ꣢न्दु꣣रि꣢न्द्र꣣ इ꣡ति꣢ ब्रु꣣व꣢न् ॥१२१८॥
स्वर सहित पद पाठउ꣣त꣢ । त्याः । ह꣣रि꣡तः꣢ । र꣡थे꣢꣯ । सू꣡रः꣢꣯ । अ꣣युक्त । या꣡त꣢꣯वे । इ꣡न्दुः꣢꣯ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । इ꣡ति꣢꣯ । ब्रु꣣व꣢न् ॥१२१८॥
स्वर रहित मन्त्र
उत त्या हरितो रथे सूरो अयुक्त यातवे । इन्दुरिन्द्र इति ब्रुवन् ॥१२१८॥
स्वर रहित पद पाठ
उत । त्याः । हरितः । रथे । सूरः । अयुक्त । यातवे । इन्दुः । इन्द्रः । इति । ब्रुवन् ॥१२१८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1218
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे फिर परमेश्वर का कर्तृत्व वर्णित है।
पदार्थ
(उत) और ‘हे मनुष्य ! तू (इन्दुः) तेज से प्रदीप्त है, (इन्द्रः) शत्रुविदारक है’ (इति ब्रुवन्) यह कहते हुए (सूरः) प्रेरक परमेश्वर ने (यातवे) व्यवहार करने के लिए (रथे) शरीररूप रथ में (त्याः) उन परम उपयोगी (हरितः) मनःशक्ति, बुद्धिशक्ति एवं प्राणशक्ति सहित ज्ञानेन्द्रियशक्ति और कर्मेन्द्रियशक्ति रूप घोड़ियों को (अयुक्त) नियुक्त किया हुआ है ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य का शरीर-रूप रथ परमेश्वर की महान् निर्माण-कला को सूचित करता है ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा तथा वीरों के उद्बोधन विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ नवम अध्याय का पञ्चम खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(उत) हाँ (सूरः) सरणशील—व्यापनशील परमात्मा (त्याः-हरितः) उन हरणशील—उपासकों का हरने आकर्षित करने वाले आनन्दप्रवाहों को (रथे-अयुक्त) रमणीय अध्यात्मयज्ञ में जोड़ता है (इन्दुः-इन्द्रः-इति ब्रुवन्) तू इन्द्र है—उपासक आत्मा है मैं इन्दु हूँ—उपास्य हूँ—उपास्य हूँ मैं आ गया हूँ इस प्रकार कहता हुआ॥३॥
विशेष
<br>
विषय
प्रभु के प्रति जानेवाला
पदार्थ
(उत) = और (सूरः) = परमात्मा के प्रति सरणशील उपासक (‘इन्दुः) = वे प्रभु सर्वशक्तिमान् हैं, (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली हैं', (इति ब्रुवन्) = ऐसा उच्चारण करता हुआ (यातवे) = उस प्रभु के प्रति जाने के लिए (रथे) = अपने इस तीव्र गतिवाले शरीररूप रथ में (त्याः हरितः) = उन प्रसिद्ध इन्द्रियाश्वों को (अयुक्त) = जोड़ता है।
मनुष्य को सदा प्रभु के प्रति गतिवाला बनना है। अपनी जीवन-यात्रा में उसे सदा प्रभु का स्मरण करना चाहिए कि वह सर्वशक्तिमान् है, परमैश्वर्यशाली है । जीवन-यात्रा को पूर्ण करने के लिए शरीररूप रथ में इन्द्रियाश्वों को जोतना है ।
भावार्थ
हे जीव! तूने प्रभु - स्मरण करते हुए जीवन यात्रा को पूर्ण करना और यही समझना कि सब ऐश्वर्य उस प्रभु का ही है, सब शक्ति उस प्रभु की ही है ।
विषय
missing
भावार्थ
(इन्दुः) ईश्वर के प्रति द्रुतगति से जाने हारा (सूरः) ज्ञानी, योगी (उत) भी (त्या हरितः) उन हरणशील प्राणों को (इन्दुः) परमेश्वर ही (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् हैं (इति) इस प्रकार (ब्रुवन्) कहता हुआ (रथे) अपने रमण करने योग्य परब्रह्म में ही आपको (अयुक्त) योगसमाधि से जोड़ दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि परमेश्वरस्य कर्तृत्वमाह।
पदार्थः
(उत) अपि च ‘हे मानव, त्वम् (इन्दुः) तेजसा समिद्धोऽसि, (इन्द्रः) शत्रुविदारकोऽसि’ (इति ब्रुवन्) इति कथयन् (सूरः) प्रेरकः परमेश्वरः (यातवे) व्यवहर्तुम् (रथे) शरीररथे (त्याः) ताः परमोपयोगिनीः (हरितः) मनोबुद्धिप्राणशक्तिसहिताः ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियशक्तिरूपाः अश्वाः (अयुक्त) नियुक्तवानस्ति ॥३॥
भावार्थः
मानवदेहरथः परमेश्वरस्य महतीं निर्माणकलां सूचयति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मविषयस्य वीरोद्बोधनविषयस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।६३।९ ‘रथे’ इत्यत्र ‘दश॒’ इति पाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
A learned Yogi also, going fast towards God, unites through Yoga those fleeting breaths, with God, saying, ‘God is Glorious'.
Meaning
And the man of brilliance and super fast intelligence, yoking ten motive forces to go over paths of the skies exclaims: "Indra is great, kind and gracious! " and he flies over the paths of his holy choice. (Rg. 9-63-9)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ: (उत) હાં, (सूरः) સરણશીલ-વ્યાપનશીલ પરમાત્મા (त्याः हरितः) તે હરણશીલ-ઉપાસકોને હરનાર આકર્ષિત કરનાર આનંદ પ્રવાહોને (रथे अयुक्त) રમણીય અધ્યાત્મયજ્ઞમાં જોડે છે. (इन्दुः इन्द्रः इति ब्रूवन्) તું ઇન્દ્ર છે-ઉપાસક આત્મા છે, હું ઇન્દુ છું-ઉપાસ્ય છું. હું આવી ગયો છું એ રીતે બોલે છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
माणसाचा शरीररूपी रथ परमेश्वराच्या महान निर्मिती कलेचा संकेत करतो. ॥३॥
टिप्पणी
या खंडात परमात्मा व वीरांच्या उद्बोधन विषयाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती जाणली पाहिजे
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