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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 124
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    2

    इ꣣दं꣡ व꣢सो सु꣣त꣢꣫मन्धः꣣ पि꣢बा꣣ सु꣡पू꣢र्णमु꣣द꣡र꣢म् । अ꣡ना꣢भयिन्ररि꣣मा꣡ ते꣢ ॥१२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣣द꣢म् । व꣣सो । सुत꣢म् । अ꣡न्धः꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯ । सु꣡पू꣢꣯र्णम् । सु । पू꣣र्णम् । उद꣡र꣢म् । उ꣣ । द꣡र꣢꣯म् । अ꣡ना꣢꣯भयिन् । अन् । आ꣣भयिन् । ररिम꣢ । ते꣣ ॥१२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं वसो सुतमन्धः पिबा सुपूर्णमुदरम् । अनाभयिन्ररिमा ते ॥१२४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । वसो । सुतम् । अन्धः । पिब । सुपूर्णम् । सु । पूर्णम् । उदरम् । उ । दरम् । अनाभयिन् । अन् । आभयिन् । ररिम । ते ॥१२४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 124
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि हम विद्वान् अतिथि और परमात्मा का उपहार से सत्कार करते हैं।

    पदार्थ

    हे (वसो) सद्गुणों के निवासक अतिथि अथवा परमात्मन् ! आप (इदम्) इस हमारे द्वारा समर्पित किये जाते हुए (सुतम्) तैयार (अन्धः) अन्न या भक्तिरस को (सुपूर्णम् उदरम्) खूब पेट भरकर (पिब) पीजिए। हे (अनाभयिन्) निर्भीक ! हम (ते) आपको (ररिम) अर्पित कर रहे हैं ॥१०॥

    भावार्थ

    जैसे कोई विद्वान् अतिथि हमसे दिये जाते हुए अन्न, रस, घी, दूध आदि को पेट भरकर पीता है, वैसे ही हे परमात्मन् ! आप हमारे द्वारा श्रद्धापूर्वक निवेदित किये जाते हुए भक्तिरस को छककर पीजिए। यहाँ निराकार एवं मुख-पेट आदि से रहित भी परमेश्वर के विषय में पेट भरकर पीजिए यह कथन आलङ्कारिक है ॥१०॥ इस दशति में परमात्मा के स्तुतिगान के लिए प्रेरणा, उससे सुख की प्रार्थना और उसकी महिमा का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥१०॥ द्वितीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (वसो) हे मेरे हृदय में एवं मेरे में बसने वाले परमात्मन्! (इदं सुतम्) इस निष्पन्न (उत्-अरम्) ऊपर गमनशील उभरनेवाले—उछलनेवाले (अन्धः) सोम—

    भावार्थ

    मेरे हृदय मेरे आत्मा में बसनेवाले निर्भयशरण परमात्मन्! तू मेरे अन्दर उभरते-उछलते हुए समस्त आत्मभावना से पूर्ण सोम्य हावभाव भरे स्तुति प्रार्थना उपासनारूप रसधारा प्रवाह को पानकर स्वीकार कर तेरी भेंट करता हूँ, तू मुझे अपना ले मैं तेरी निर्भयशरण में रहूँ, क्योंकि तेरा स्वभाव है “देहि मे ददामि ते” [यजुः॰ ३.५०] मुझे दे तुझे देता हूँ॥१०॥

    टिप्पणी

    “अन्धसः सोमस्य” [निरु॰ १३.८] “अन्धसस्पते सोमस्य पते” [श॰ ४.१.१.२४] सोम्य हावभाव भरे स्तुति प्रार्थना उपासनारसधाराप्रवाह को (सुपूर्णम्) जो भलीभाँति पूर्ण है, समस्त आत्मभावना से भरा हुआ है उसे (पिब) पानकर स्वीकार कर (अनाभयिन्) ‘आभयम्-ईषद्भयं नेषद्भयं यस्मिन्-यस्याश्रये तथाभूतं’ थोड़ा भी भय जिसके आश्रय में नहीं वह ऐसे सर्वथा निर्भयशरणवाले परमात्मन्! (ते ररिमा) तेरे लिये हम देते हैं—समर्पित करते हैं। जैसे अन्यत्र भी कहा है—न घा॑ त्व॒द्रिगप॑ वेति मे॒ मन॒स्त्वे इत्कामं॑ पुरुहूत शिश्रय। राजे॑व दस्म॒ नि ष॒दोऽधि॑ ब॒र्हिष्य॒स्मिन्त्सु सोमे॑ऽव॒पान॑मस्तु ते॥२॥—[ऋ० १०.४३.२]

    विशेष

    ऋषिः—प्रियमेधः काण्वः (मेधावी का शिष्य मेधाप्रिय जिसको है ऐसा जन)॥<br>

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    विषय

    सोम का पान

    पदार्थ

    प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (वसो )= उत्तम ढङ्ग से शरीर में निवास करनेवाले जीव ! (इदं अन्धः) = यह सोम (सुतम्) = उत्पन्न किया गया है। प्रभु ने इस शरीर की रचना इस प्रकार की है कि उसमें आहार से रस, रस से रुधिर और रुधिर से मांसादि के क्रम से सातवें स्थान में वीर्य=सोम की उत्पत्ति होती है। जिस जीव को इस शरीर में उत्तम ढङ्ग से रहना हो उसके लिए आवश्यक है कि वह सोम की रक्षा करे। ('मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्') = इस सोम के बिन्दु के गिरने से हम मृत्यु के मार्ग पर जाते हैं और इसकी रक्षा से जीवन के मार्ग पर। एवं, यह सदा सब दृष्टिकोणों से [ समन्तात् = आ] ध्यान देने योग्य होता है, इसीलिए इसे ‘अन्धः' [आध्यानीय] कहा गया है। प्रभु ने इस अद्भुत सोम के उत्पादन की व्यवस्था तो कर दी है, अब जीव का कर्त्तव्य है कि वह प्रभु के इस उपदेश को क्रियारूप में लाये कि (‘पिब') = इसका तुम पान करो। इस वीर्य को शरीर में ही सुरक्षित करने का प्रयत्न करो। इसकी रक्षा से यह (सुपूर्णम्) = तुम्हारा उत्तम प्रकार से पालन व पूरण करेगा और (अरम्) = तुम्हारे जीवन को सद्गुणों से अलंकृत कर देगा [अरं = to decorate] । वीर्य रक्षा जहाँ हमें अशुभ वृत्तियों से बचाएगी वहीं उत्तम गुणों से अलंकृत भी करेगी। हमारे शरीर नीरोग होंगे, मन विशाल होंगे और बुद्धियाँ तीव्र होंगी। उस समय हम निर्भीक होकर इस जीवन-यात्रा में आगे और आगे बढ़ पायेंगे।

    प्रभु जीव को सम्बोधिस करते हैं कि (अनाभियन्) = हे निर्भिक जीव! (ते) = तुझे (ररिमा) = हमने यही तो एक देन दी है। परमेश्वर की दी हुई वस्तुओं में सर्वोत्तम वस्तु यह वीर्य ही है। वेद-ज्ञान क्या इससे अच्छा नहीं है? ऐसा प्रश्न हो सकता है। इसका उत्तर यह है कि उस वेद-ज्ञान का साधन भी तो वीर्यशक्ति की रक्षा ही है। प्रभु - प्रदत्त इस सर्वोत्तम वस्तु की हमें रक्षा करनी ही चाहिए। इसकी रक्षा से ही हम ज्ञान प्राप्त करके इस मन्त्र के ऋषि 'मेधातिथि काण्व' बन सकेंगे।

    भावार्थ

    प्रभु ने वीर्य की उत्पत्ति की व्यवस्था की है। यह प्रभु द्वारा प्रदान की गई सर्वोत्तम वस्तु है। हम इसकी रक्षा करें और निर्भीक बनें।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे ( वसो  ) = शरीर में बसने वाले देव ! या शरीर में दश इन्द्रियों और अन्तःकरण आदि को बसाने वाले इन्द्र ! आत्मन् ! तू ( इदम् ) = इस ( सुतम् ) = उत्पन्न किये । ( अन्धः ) = अन्न जीवन-धारण सामर्थ्य को ( सुपूर्णम् उदरम् ) = खूब पेट भर कर ( पिब  ) = ग्रहण कर ।  हे ( अनाभयिन् ) = भयरहित वीर, यह सब सोम आदि आत्मा ( ते ) = तेरे लिये हम ( ररिम  ) = देते हैं, भेंट करते हैं ।

    “भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्य: " इत्यादि, उपनिषद् की यही  संगति होती हैं । आत्मा को राजा के दृष्टान्त से बृहदारण्यक में उत्तम रीति से समझाया है ।
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः -  काण्वः। 

    छन्दः - गायत्री। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    वयं विद्वांसमतिथिं परमात्मानं चोपहारेण सत्कुर्म इत्याह।

    पदार्थः

    हे (वसो) सद्गुणानां वासयितः अतिथे परमात्मन् वा, त्वम् (इदम्) एतद् अस्माभिः समर्प्यमाणम्, (सुतम्) अभिषुतम्, सज्जीकृतम् (अन्धः) अन्नं श्रद्धारसं वा। अन्धः इत्यन्ननामसु पठितम्। निघं० २।७ अदेर्नुम् धौ च उ० ४।२०७ इति अद् भक्षणे धातोः असुन् प्रत्ययो, नुमागमो, धकारादेशश्च। (सुपूर्णम् उदरम्) उदरम् सुष्ठु पूर्णं यथा स्यात् तथा (पिब) आस्वादय। संहितायाम् द्व्यचोऽतस्तिङः। अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः। हे (अनाभयिन्२) निर्भय ! वयं (ते) तुभ्यम् (ररिम) प्रयच्छामः। रा दाने। छन्दसि लुङ्लङ्लिटः। अ० ३।४।६ इति लडर्थे लिट्। संहितायाम् अन्येषामपि दृश्यते अ० ६।३।१३७ इति दीर्घः ॥१०॥

    भावार्थः

    यथा कश्चिद् विद्वानतिथिरस्माभिः प्रदीयमानमन्नरसघृतदुग्धादिकं सुपूर्णमुदरं पिबति तथैव हे परमात्मन् ! त्वमस्माभिः श्रद्धया विनिवेद्यमानं भक्तिरसं कणेहत्य पिब। अत्र अकायस्य मुखोदरादिरहितस्यापि परमेश्वरस्य विषये सुपूर्णमुदरं पिब’ इति व्याहार आलङ्कारिक एव ॥१०॥ अत्र परमात्मनः स्तुतिगानार्थं प्रेरणात्, ततः सुखप्रार्थनात्, तन्महिमवर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति द्वितीये प्रपाठके प्रथमार्धे तृतीया दशतिः। इति द्वितीयाध्याये प्रथमः खण्डः ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।२।१, साम० ७३४। २. आ समन्ताद् बिभेति आभयी, बिभेतेरौणादिक इनिः, न आभयी अनाभयी, तादृशः—इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, enjoy to thy entire satisfaction, this well-earned excellent pleasure. We offer it to thee.

    Translator Comment

    वसो Means soul, as it dwells in the body.

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    Meaning

    O lord of the worlds treasure of wealth, honour and excellence, here is this exhilarating soma nectar of love and devotion distilled from the heart and soul. Pray drink of it to your hearts content. We offer it to you, lord beyond fear. (Rg. 8-2-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वसो) હે મારા હૃદયમાં તથા મારામાં નિવાસ કરનાર પરમાત્મન્ ! (इदं सुतम्) એ ઉત્પન્ન (उत् अरम्) ઉપર ગમનશીલ , ઊભરનાર - ઉછળનાર (अन्धः) સોમ - સોમ્ય હૃદયના ભાવથી પૂર્ણ સ્તુતિ , પ્રાર્થના , ઉપાસનારસ ધારા પ્રવાહને (सुपूर्णम्) જે સમ્યક્ પૂર્ણ છે , સમસ્ત આત્મ ભાવનાથી ભરેલ છે , તેનું (पिब) પાન કર , સ્વીકાર કર. (आभयम्) જેના આશ્રયમાં જરા પણ ભય નથી તે સર્વથા નિર્ભય શરણવાલા પરમાત્મન્ ! (ते ररिमा) અમે તારા માટે આપીએ છીએ - સમર્પિત કરીએ છીએ. (૧૦)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : મારા હૃદય અને આત્મામાં નિવાસી , નિર્ભય શરણ પરમાત્મન્ ! તું મારામાં ઉભરતા-ઉછળતા સમસ્ત આત્મ ભાવનાથી પૂર્ણ સોમ્ય હૃદયના ભાવથી ભરેલી સ્તુતિ , પ્રાર્થના , ઉપાસનારૂપ રસ ધારા પ્રવાહનું પાન કર , સ્વીકાર કર , તને ભેટ ધરું છું. તું મને અપનાવી લે , હું તારા નિર્ભય શરણમાં રહું , કારણ કે તારો સ્વભાવ છે देहि मे ददामि ते(યજુ૦ ૩.૫૦)તું મને આપ હું તને આપું. (૧૦) 

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    بھگتی رَس کی بھینٹ کر رہے ہیں

    Lafzi Maana

    (وسو) سارے جگت میں اور میرے ہِردیہ میں بسنے والے پرماتمن! (اِدم) یہ بھگتی رس (اندھ) ادھیاتمک اَنّ (روُحانی خوراک) ہے۔ جسے ہم نے (سُتم) تیار کیا ہے، آپ اِسے (پِب) گرہن کیجئے، پان کیجئے۔ جیسے کہ کوئی آدمی (سوُپُورنم اُدرم) خوب بھر پیٹ دُودھ وغیرہ پی جاتا ہے (انابھ یِن) ہے سب اور سے نِربھئے۔ بے خوف و خطر اِیشور! ہم اُپاسک آپ کے لئے بھگتی رس (رِشما) بھینٹ کرتے ہیں۔

    Tashree

    سب کے شرناگت اے بھگون! ہم تیری شرن میں آتے ہیں، بھگتی رس سوم کو ارپن کر ابھئے پد آپ سے پاتے ہیں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा एखादा विद्वान अतिथी आम्ही दिलेल्या अन्न, रस, तूप, दूध इत्यादी पोट भरून पितो, तसेच हे परमात्मा! तू आमच्याद्वारे श्रद्धापूर्वक निवेदन केलेला भक्तिरस गाळून पी. येथे निराकार व मुख-पोट इत्यादी रहित ही परमेश्वराच्या विषयी पोट भरून पी हे कथन आलंकारिक आहे. ॥१०॥

    टिप्पणी

    या दशतिमध्ये परमात्म्याच्या स्तुतिगानासाठी प्रेरणा, त्याच्याकडून सुखाची प्रार्थना व त्याच्या महिमेचे वर्णन असल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे

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    विषय

    पुढील मंत्रात असे सांगितले आहे की आम्ही विद्वानांचा, अतिथींचा आणि परमेश्वराचा उपहाराद्वारे सत्कार करतो -

    शब्दार्थ

    हे (वसो) सद्वुणांचे निवासक अतिथी / हे परमात्मन्, आपण (इदम्) आमच्यातर्फे तुम्हाला अर्पित केले जाणारे व (सुतम्) आम्ही तयार केलेले (अन्धः) अन्न / हा भक्तिरस (सुपूर्णम् उदरम्) पोट भरून प्रसन्नतेने (पिव) प्या / स्वीकार करा. हे (अवाभविन्) विर्भीक निर्भय हे सर्व आम्ही (ते) तुमच्यासाठी (ररिम) अर्पित करीत आहोत. ।। १०।।

    भावार्थ

    जसा एखादा विद्वान अतिथी आमच्यातर्फे सादर केलेले अन्न, रस, घृत, दूध आदी पदार्थ पोट भरून मनसोक्तपणे पितो, तद्वत हे परमेश्वरा, तू आम्ही श्रद्धा पूरित हृदयाने निवेदित करीत असलेल्या भक्तिरसाचा भरपूर आस्वाद घ्या. परमेश्वर निराकार व निरवयव आहे, तथापि येथे ‘पोट भरून प्या’ असे जे म्हटले आहे, तो अलंकारिक प्रयोग आहे. ।। १०।। या दशतीमध्ये परमेश्वराच्या स्तुतिगानासाठी प्रेरणा, त्याला सुख देण्याची केलेली प्रार्थना आणि त्याच्या महत्तेचे वर्णन असल्यामुळे या दशतीच्या विषयांची संगती पूर्व दशतीच्या विषयाशी आहे, असे जाणावे. ।। १०।। द्वितीय प्रपाठकातील प्रथम अर्धाची तृतीय दशती समाप्त द्वितीय अध्यायातील प्रथम खंड समाप्त

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    வசுவே இங்கு தோன்றிய சோமரசத்தை உன் வயிறு நிறையும் வரை பருகவும், அச்சமற்றவனே ; அதை உனக்கு அளிக்கிறேன்.

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