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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1258
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स देवरातः कृत्रिमो वैश्वामित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    3

    ए꣣ष꣡ विश्वा꣢꣯नि꣣ वा꣢र्या꣣ शू꣢रो꣣ य꣡न्नि꣢व꣣ स꣡त्व꣢भिः । प꣡व꣢मानः सिषासति ॥१२५८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए꣣षः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯नि । वा꣡र्या꣢꣯ । शू꣡रः꣢꣯ । यन् । इ꣣व । स꣡त्व꣢꣯भिः । प꣡व꣢꣯मानः । सि꣣षासति ॥१२५८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष विश्वानि वार्या शूरो यन्निव सत्वभिः । पवमानः सिषासति ॥१२५८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । विश्वानि । वार्या । शूरः । यन् । इव । सत्वभिः । पवमानः । सिषासति ॥१२५८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1258
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में जीवात्मा का विषय है।

    पदार्थ

    (पवमानः) अपने को पवित्र करता हुआ (एषः) यह जीवात्मा (सत्त्वभिः) अपने पुरुषार्थों से (विश्वानि) सब (वार्या) वरणीय वस्तुओं को (सिषासति) प्राप्त करना चाहता है, (यन् इव) जैसे चलता हुआ (शूरः) कोई शूरवीर (विश्वानि वार्या) सब प्राप्तव्य स्थानों को प्राप्त कर लेता है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य अपने पुरुषार्थ से सब अभीष्टों को पा सकता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (एषः-शूरः) यह प्रगतिशील परमात्मा (सत्त्वभिः-यन्-इव) गुणबलों द्वारा प्राप्त होता हुआ-सा (विश्वानि वार्या) सब वरणीय सुखों को (पवमानः) साक्षात् होता हुआ उपासक को देना चाहता है—दे देता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    उपासना के परिणाम

    पदार्थ

    (एषः) = यह प्रभु की उपासना करनेवाला जीव १. (शूरः) = [ शृ हिंसायाम् ] कामादि सब अशुभ वृत्तियों की हिंसा करनेवाला होता है। २. (सत्वभिः यन् इव) = यह सदा सात्त्विक वृत्तियों के साथ गति करता है। रजोगुण व तमोगुण को अभिभूत करके इसमें सत्त्वगुण प्रबल होता है । ३. (पवमानः) = यह अपने जीवन को पवित्र करने के स्वभाववाला होता है। इसका जीवन उत्तरोत्तर पवित्र होता जाता है। ४. पवित्र जीवनवाला होकर यह (विश्वानि वार्या सिषासति) = वरणीय वस्तुओं को पाना चाहता है। वह अवाञ्छनीय वस्तुओं की कामना से ऊपर उठ जाता है ।

    भावार्थ

    प्रभु-उपासना हमें १. शूर, २. सात्त्विक, ३. पवित्र व ४. शुभ इच्छाओंवाला बनाती है।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जीवात्मविषयमाह।

    पदार्थः

    (पवमानः) स्वात्मानं पवित्रीकुर्वन् (एषः) अयम् जीवात्मा (सत्त्वभिः) स्वकीयैः पुरुषार्थैः (विश्वानि) सर्वाणि (वार्या) वार्याणि, वरणीयानि वस्तूनि (सिषासति) संभक्तुं प्राप्तुम् इच्छति। [षण सम्भक्तौ, सन्नन्तं रूपम्।] कथमिव ? (यन् इव) गच्छन् यथा (शूरः) वीरः कश्चिज्जनः (विश्वानि वार्या) सर्वाणि वरणीयानि प्राप्तव्यानि स्थानानि प्राप्नोति, तद्वत् ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    मनुष्यः स्वकीयेन पुरुषार्थेन निखिलान्यप्यभीष्टानि प्राप्तुं शक्नोति ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।३।४।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This soul, purifying the body, leads us with its spiritual forces like a warrior, and grants all pleasures.

    Translator Comment

    See verse 542.

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    Meaning

    This divine spirit, pure, purifying and powerful, advancing by its own essential power as a hero, brings and distributes cherished gifts of life among the celebrants. (Rg. 9-3-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (एषः शूरः) એ પ્રગતિશીલ પરમાત્મા (सत्त्वभिः यन् इव) ગુણ બળો દ્વારા પ્રાપ્ત થવા સમાન (विश्वानि वार्या) સર્વ સુંદર સુખોને (पवमानः) સાક્ષાત્ થઈને ઉપાસકને આપવા ઇચ્છે છે-આપે છે. [કર્મફળ પ્રમાણે તેની વહેંચણી કરે છે.](૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणूस आपल्या पुरुषार्थाने सर्व अभीष्टांना प्राप्त करू शकतो. ॥३॥

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