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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 127
ऋषिः - भारद्वाजः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
2
य꣡ आन꣢꣯यत्परा꣣व꣢तः꣢ सु꣡नी꣢ती तु꣣र्व꣢शं꣣ य꣡दु꣢म् । इ꣢न्द्रः꣣ स꣢ नो꣣ यु꣢वा꣣ स꣡खा꣢ ॥१२७॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । आ꣡न꣢꣯यत् । आ꣣ । अ꣡न꣢꣯यत् । प꣣राव꣡तः꣢ । सु꣡नी꣢꣯ती । सु । नी꣣ति । तुर्व꣡श꣢म् । य꣡दु꣢꣯म् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । सः । नः꣣ । यु꣡वा꣢꣯ । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ ॥१२७॥
स्वर रहित मन्त्र
य आनयत्परावतः सुनीती तुर्वशं यदुम् । इन्द्रः स नो युवा सखा ॥१२७॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । आनयत् । आ । अनयत् । परावतः । सुनीती । सु । नीति । तुर्वशम् । यदुम् । इन्द्रः । सः । नः । युवा । सखा । स । खा ॥१२७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 127
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमेश्वर, विद्युत् और राजा के सख्य की प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ
प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। (यः) जो (परावतः) दूर से भी (यदुम्) यत्नशील मनुष्य को (सुनीती) उत्तम नीति की शिक्षा देकर (तुर्वशम्) अपने समीप (आनयत्) ले आता है, (सः) वह (युवा) सदा युवा की तरह सशक्त रहनेवाला (इन्द्रः) परमेश्वर (नः) हमारा (सखा) सहायक मित्र होवे ॥ द्वितीय—विद्युत् के पक्ष में। (यः) जो विमानादियानों में प्रयोग किया गया विद्युत् (यदुम्) पुरुषार्थी मनुष्य को (परावतः) अत्यन्त दूर देश से भी (तुर्वशम्) मनोवाञ्छित वेग से (सुनीती) उत्तम यात्रा के साथ, अर्थात् कुछ भी यात्रा-कष्ट न होने देकर (आनयत्) देशान्तर में पहुँचा देता है, (सः) वह प्रसिद्ध (युवा) यन्त्रों में प्रयुक्त होकर पदार्थों के संयोजन या वियोजन की क्रिया द्वारा विभिन्न पदार्थों के रचने में साधनभूत (इन्द्रः) विद्युत् (नः) हमारा (सखा) सखा के समान कार्यसाधक होवे ॥ तृतीय—राजा के पक्ष में। (यः) जो राजा (परावतः) अधममार्ग से हटाकर (यदुम्) प्रयत्नशील, उद्योगी, (तुर्वशम्) हिंसकों को वश में करनेवाले मनुष्य को (सुनीती) उत्तम धर्ममार्ग पर (आनयत्) ले आता है, (सः) वह (युवा) शरीर, मन और आत्मा से युवक (इन्द्रः) अधर्मादि का विदारक राजा (नः) हम प्रजाओं का (सखा) मित्र होवे ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ
जैसे विमानादि यानों में प्रयुक्त विद्युद्रूप अग्नि सुदूर प्रदेश से भी विमानचालकों की इच्छानुकूल गति से लोगों को देशान्तर में पहुँचा देता है, अथवा जैसे कोई सुयोग्य राजा अधर्ममार्ग पर दूर तक गये हुए लोगों को उससे हटाकर धर्ममार्ग में प्रवृत्त करता है, वैसे ही परमेश्वर उन्नति के लिए प्रयत्न करते हुए भी कभी कुसङ्ग में पड़कर सन्मार्ग से दूर गये हुए मनुष्य को कृपा कर अपने समीप लाकर धार्मिक बना देता है ॥३॥ इस मन्त्र की व्याख्या में विवरणकार ने लिखा है कि तुर्वश और यदु नाम के कोई राजपुत्र थे। इसी प्रकार भरतस्वामी और सायण का कथन है कि तुर्वश और यदु नामक दो राजा थे, जिन्हें शत्रुओं ने दूर ले जाकर छोड़ दिया था। उन्हें इन्द्र उत्तम नीति से दूर देश से ले आया था, यह उन सबका अभिप्राय है। यह सब प्रलापमात्र है, क्योंकि वेद सृष्टि के आदि में परब्रह्म परमेश्वर से प्रादुर्भूत हुए थे, अतः उनमें परवर्ती किन्हीं राजा आदि का इतिहास नहीं हो सकता। साथ ही वैदिककोष निघण्टु में ‘तुर्वश’ मनुष्यवाची तथा समीपवाची शब्दों में पठित है, और ‘यदु’ भी मनुष्यवाची शब्दों में पठित है, इस कारण भी इन्हें ऐतिहासिक राजा मानना उचित नहीं है ॥३॥
पदार्थ
(यः-इन्द्रः) जो ऐश्वर्यवान् परमात्मा (सुनीती) सुनीति-शोभन नेतृत्व से—पथप्रदर्शकता से (परावतः) दूर गये—पथभ्रष्ट कुमार्ग से (यदुम्) मनुष्य को “यदवः मनुष्याः” [निघं॰ २.३] (तुर्वशम्-आनयत्) समीप—अपने समीप—सन्मार्ग में “तुर्वशः-अन्तिकनाम” [निघं॰ २.१६] ले आता है (सः-नः) वह हमारे (युवा सखा) सदा बलवान् बना रहने वाला मित्र है।
भावार्थ
परमात्मा शोभन पथप्रदर्शकता से भटके हुए जन को सुपथ पर ले आता है वह मानव का सदा साथी मित्र है उस जैसा पथप्रदर्शक और मित्र कोई नहीं है॥३॥
विशेष
ऋषिः—भरद्वाजः (परमात्मज्ञान को धारण करने वाला)॥<br>
विषय
प्रभु ही हमारे युवा मित्र हैं
पदार्थ
(सः)=वह (इन्द्रः)=सब शक्तियों का ईश्वर, सब असुरों का संहारक इन्द्र (नः) = हमारा (सखा) = मित्र है। वह (युवा)=पाप से पृथक् करनेवाला [यु= अमिश्रण] और भद्र से मिलानेवाला [यु = मिश्रण] है। वह हमें असत् से सत् की ओर, तमस् से ज्योति की ओर और मृत्यु से अमृत की ओर ले-चलता है। दुरितों से दूर कर भद्र को प्राप्त करानेवाला व कुटिल पाप से पृथक् कर सुपथ पर ले-चलनेवाला वही है। कौन-सा इन्द्र ? (यः) = जो (परावतः) = बहुत दूर भटक गये, बहुत दूर हो गये को भी (आनयत्) = फिर सुमार्ग पर ले आता है। जीव वस्तुतः कितना भटक गया है! कल्पना करके भी घबराहट होती है। वस्तुतः आत्मिक उन्नति के मार्ग पर चलना था। उसपर चलने की क्षमता के अभाव में बौद्धिक उन्नति का पथ था। उससे उतरकर मानस पवित्रता का मार्ग था। उससे भी उतरकर प्राणों की साधना थी, शरीर का ही पोषण था। हम तो इससे भी नीचे उतरकर धन जुटाने में ही लग गये और बहुत बार तो उससे भी उतरकर हमारे जीवन का लक्ष्य दूसरों को नीचा दिखाना ही हो गया। इस प्रकार सूदूर मार्ग- भ्रष्ट हमें वे प्रभु फिर से मार्ग पर ले-आते हैं। कैसे? (सुनीती) = उत्तम नीति के द्वारा । नीतिमार्ग में चार उपाय हैं - साम, दान, भेद और दण्ड। प्रभु साम= शान्ति से हमें सदा प्रेरणा देते हैं। प्रेरणा से कार्य न चलने पर, दान- जितने अंश में हम प्रेरणा पर चलते हैं, वह हमें उतना ऐश्वर्य प्राप्त कराके इस दाननीति से और भी सन्मार्ग पर लाने की व्यवस्था करते हैं। इसके भी असफल होने पर भेद=सांसारिक विषमता के द्वारा वे हमें प्रेरित करते हैं। अन्ततोगत्वा वे दण्ड के प्रयोग से हमें पापमार्ग पर बढ़ने के अयोग्य बना देते हैं।
परन्तु यह सुनीति किनके लिए बरती जाती है? जो (तुर्वशम्) = काम-क्रोधादि नाशक
वृत्तियों को वश में करने की इच्छा करते हैं। [तुर्वी हिंसायाम् ] केवल इच्छा ही नहीं, (यदुम्)=जो प्रयत्नशील भी होते हैं [यती प्रयत्ने]। जो व्यक्ति अपने उत्कर्ष की भावना से ही शून्य हैं और जो आत्मोत्कर्ष के लिए किञ्चिन्मात्र भी काम नहीं करते, वे प्रभु की सुनीति के प्रयोग के पात्र भी नहीं होते।
प्रभु अपने शिक्षणालय में प्रविष्ट जीव को वाज- शक्ति से भरत्- भर देते हैं और यह 'भरद्वाज' बन विघ्न-बाधाओं को पार कर सन्मार्ग पर तीव्रता से बढ़ चलता है।
भावार्थ
हम कामादि को जीतने की इच्छा करें, और उसके लिए प्रयत्नशील हों, ताकि वह प्रभु जो हमारे सच्चे मित्र हैं, हमें अशुभ से हटाकर शुभ से संयुक्त करें।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( यः ) = जो ( इन्द्रः ) = ऐश्वर्यवान् पुरुष ( सुनीती ) = उत्तम नीति, उपाय साधन द्वारा ( तुर्वशं ) = कामनाओं से बंधे और ( यदुं ) = कुपथ में गये पुरुष को ( परावतः ) = बहुत दूर से भी ( अनयत् ) = सन्मार्ग पर लेआता है ( सः ) = वह ( नः ) = हमारा ( युवा ) = सदा जवान, अजर, अमर, नित्य ( सखा ) = इष्ट मित्र और समान ख्याति वाला, हमारे आत्मा या हृदय देश में विराजमान परमात्मा या आचार्य है। यहां इन्द्र आत्मा, परमात्मा, आचार्य तीनों पर समान भाव से लगता है ।
'तुर्वशं'- तुर्वी हिंसायाम् । भ्वादिः । कलेरशच् । हिंसन्ति आहिंस्यन्ते ब्याध्यादिभिर्वा । यद्वा तूर त्वरणहिंसमयो: । दिवादिः । यद्वा तुर्वशः काम
एषामिति तुर्वशा: । यद्वा चतुर्षु धर्मार्थकाममोक्षेषु वश एषामिति चतुर्वशाः सन्तः, चकारलोपेन तुर्वशाः । दे० य० । तुर्वश इति मनुष्यनाम | नि० २ | ३ ॥
'यदुम्' – यदुः, यमेर्दुक् इति भोजः । यम्यते नियम्यते आचार्येण अपथप्रवृत्ताराज्ञा वा । यदुरिति मनुष्यनाम । नि० २ । ३ ॥
तुर्वश, द्रुड्यु, अनु, यदु, और पुरु ये ऐतिहासिक पुरुष भी हुए हैं। सायण ने इतिहासपरक ही अर्थ किया है । परन्तु वेद में ये सव मनुष्य के पर्याय शब्द हैं। धात्वर्थी के भेद से भिन्न २ गुण के मनुष्यों के ये वाचक हैं । जैस-(१) ‘तुर्वी हिंसायां' धातु से अशच् प्रत्यय करने से तुवंश शब्द बनता है। जो प्राणियों को मारें या व्याधि से पीड़ित हों । (२) तुर्वश= जिन को काम अर्थात् एषणा हो वे तुर्वश कहाते हैं। या (३) जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों को अपने वश करलें वे 'तुर्वश' कहाते हैं। उसी प्रकार 'यदु' वे मनुष्य हैं जो कुमार्ग पर पैर धरने पर राजा व आचार्य द्वारा नियम व्यवस्था में लाये जावें । आर्यसाहित्य में देव को इष्ट, बन्धु कहा जाता हैं और आचार्य को भी सुहृत् माना गया है। सुहृद् भूत्वा आचार्य उपदिशति' ( पातं० महाभाष्य ) ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भारद्वाजः।
छन्दः - गायत्री।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमेश्वरस्य विद्युतो राज्ञश्च सख्यं प्रार्थयते।
पदार्थः
प्रथमः—परमेश्वरपरः। (यः परावतः) परागताद् दूरदेशादपि। परावत इति दूरनाम। निघं० ३।२६। उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे।’ अ० ५।१।११८, अनेन परा इत्युपसर्गाद् वतिः प्रत्ययः। (यदुम्२) सामीप्याय प्रयतमानं नरम्। यदवः इति मनुष्यनामसु पठितम् निघं० २।३। (सुनीती) उत्तमनीत्या। सुपां सुलुक्पूर्वसवर्ण०’ अ० ७।१।३९ इति तृतीयैकवचने पूर्वसवर्णदीर्घः। (तुर्वशम्) समीपम्। तुर्वश इत्यन्तिकनामसु पठितम्। निघं० २।१६। (आ अनयत्) आनयति, (सः) असौ (युवा) नित्यतरुणः, यः कदापि बालवद् वृद्धवद् वा शक्तिविकलो न भवति तादृशः, सदा सशक्त इत्यर्थः, (इन्द्रः) परमेश्वरः (नः) अस्माकम् (सखा) सहायकः सुहृद्, भवतु। अथ द्वितीयः—विद्युत्परः। (यः) विमानादियानेषु प्रयुक्तः सन् (यदुम्) पुरुषार्थिनं जनम् (परावतः) अत्यन्तदूरदेशादपि (तुर्वशम्) इच्छाधीनवेगेन। त्वरा वेगो वशे यथा स्यात् तथा। (सुनीती) सुनीत्या शोभनया यात्रया सह, किञ्चिदपि यात्राकष्टमनुत्पाद्येत्यर्थः, (आनयत्) देशान्तरं प्रापयति, (सः) असौ प्रसिद्धः (युवा३) यन्त्रेषु प्रयुक्तः सन् पदार्थानां संयोजनक्रियया वियोजनक्रियया वा पदार्थान्तराणां रचने साधनभूतः। यु मिश्रणेऽमिश्रणे च इति धातोः कनिन् युवृषितक्षि०’ उ० १।१५६ इति कनिन् प्रत्ययः। युवा प्रयौति कर्माणि। निरु० ४।१९। (इन्द्रः) विद्युत् (नः) अस्माकम् (सखा) सखेव कार्यसाधको भवतु। अथ तृतीयः—राजपरः४। (यः) राजा (परावतः) अधर्ममार्गात् प्रच्याव्य (यदुम्) यतमानम् उद्योगिनम् (तुर्वशम्५) हिंसकानां वशकरं मनुष्यम्। तुर्वश इति मनुष्यनाम। निघं० २।३। (सुनीती) सुनीतौ धर्ममार्गे। अत्र सप्तम्येकवचनस्य पूर्वसवर्णदीर्घः। (आनयत्) आनयति, (सः) असौ (युवा) शरीरेण मनसाऽऽत्मना च युवकः (इन्द्रः) अधर्मविदारको राजा (नः) प्रजानामस्माकम् (सखा) सहायकः भवतु ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥
भावार्थः
यथा विमानादियानेषु प्रयुक्तो विद्युदग्निः सुदूरादपि प्रदेशाद् विमानादिचालकानामिच्छानुसारिगत्या जनान् देशान्तरं प्रापयति, यथा वा कश्चित् सुयोग्यो राजाऽधर्ममार्गे दूरंगतान् जनाँस्ततो निवर्त्य धर्ममार्गे प्रवर्तयति, तथैव परमेश्वरः उन्नत्यै प्रयतमानमपि कदाचित् कुसङ्गे पतित्वा सन्मार्गाद् दूरंगतं जनं स्वान्तिकमानीय धार्मिकं करोति ॥३॥ अत्र तुर्वशं नाम राजपुत्रं यदुं च इति विवरणकृत्। तथैव तुर्वशं यदुं च राजानौ शत्रुभिः दुरेऽपास्तौ इति भरतस्वामी। तुर्वशं यदुं च एतत्संज्ञौ राजानौ शत्रुभिः दूरदेशे प्रक्षिप्तौ इति सायणः। तौ इन्द्रः सुनीत्या दूरदेशादानीतवान् इति सर्वेषामभिप्रायः। तत्सर्वं प्रलपितमात्रम्, वेदानां सृष्ट्यादौ परब्रह्मणः सकाशात् प्रादुर्भूतत्वात् तत्र परवर्तिनां केषाञ्चिद् राजादीनामितिहासस्यासंभवात्, निघण्टौ तुर्वशस्य मनुष्यनामसु अन्तिकनामसु च पठितत्वात्, यदोश्चापि मनुष्यनामसु कीर्तनाच्च ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।४५।१, ऋषिः शंयुः बार्हस्पत्यः। २. अत्र यती प्रयत्ने इत्यस्माद् बाहुलकाणौदिकः उः प्रत्ययः, तकारस्य दकारः इति ऋ० १।३६।१८ भाष्ये द०। ३. युवा यौति मिश्रयति पदार्थैः सह, पदार्थान् वियोजयति वा यः सः इति ऋ० १।१२।६ भाष्ये द०। ४. दयानन्दर्षिरपि ऋग्भाष्ये मन्त्रमिमं राजपक्षे व्याख्यातवान्। ५. (तुर्वशेषु) तूर्वन्तीति तुरः तेषां वशकर्तारो मनुष्याः तेषु इति ऋ० १।१०८।८ भाष्ये द०।
इंग्लिश (2)
Meaning
God is our Youthful friend. Who brings from afar on the right path, the man who is a slave to passions, and has gone astray.
Translator Comment
$ Indra means God or Preceptor. ^तुर्वश may mean the person who kills others and is a Prey to diseases, तुर्वि हिंसायाम् It may also mean a slave to passions. It can be interpreted as a man who controls Dharma, Arth, Kim and Moksha. ^Yadu means a person who abandons the path of virtue and rectitude and goes astray.^Sayana has interpreted तुर्वश and यदु as two Kings. This interpretation is inapplicable, as there is no history in the Vedas. Ft. Jawala Prasad interprets Yadu as incarnation of Nar Rup. This is humbug as Veda does not support the doctrine of incarnation. Griffith translates Turvasa and Yadu as two Aryan tribes. This is inapplicable as Vedas are free from historical references. Griffith is of the view that some expedition against a distant King appears to be referred to. This is meaningless.
Meaning
May Indra, that eternal lord omnipotent, that youthful ruler, and that forceful leader, be our friend and companion so that he may lead the man of instant decision and action and the hardworking people on way to wisdom and right living even from far off distance. (Rg. 6-45-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (य इन्द्रः) જે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (सुनीती) સુંદર નેતૃત્વથી - માર્ગદર્શકતાથી (परावतः) દૂર થયેલ - પથભ્રષ્ટ કુમાર્ગથી [ચીલો ચાતરી ગયેલ] (यदुम) મનુષ્યને (तुर्वशम् आनयत्) સમીપ - પોતાની સમીપ - સન્માર્ગમાં લઈ આવે છે , (सः नः) તે અમારો (युवा सखा) સદા બળવાન બની રહેનાર મિત્ર છે. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મા સુંદર પથપ્રદર્શકતાથી ભટકેલ જનને સુમાર્ગ પર લઈ આવે છે , તે મનુષ્યનો સદા સાથી મિત્ર છે , તેના જેવો પથપ્રદર્શક અને મિત્ર બીજો કોઈ નથી. (૩)
उर्दू (1)
Mazmoon
سدا جوان ہمارا سچّا دوست
Lafzi Maana
(یہ اِندر) جو اِندر پرمیشور (ترُوشم یُدم) ہِنسک وِرتیوں کو وَش میں کرنے والے اور اِس طرف کو اپنا رجحان بڑھانے والے عابد کو (سُونیتی) اُتم متی، عقلِ پاک دے کر (پراوتہ آنیسّت) دُور برائیوں کے راستے سے ہٹا کر اپنی طرف لے آتا ہے یا اپنے سامنے کر لیتا ہے (سہ نہ سَکھایُوا) وہ پرمیشور ہی ہمارا سچا دوست ہے، جو ہمیشہ جوان ہے۔
Tashree
جو وِشو کو شُبھ نیتی سے ہے راستی پر ڈالتا، وہ اِیشور ہے یووک سب کو متِر بن کر پالتا۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसे विमान इत्यादी यानांमध्ये प्रयुक्त विद्युद्रुप अग्नी दूर दूर प्रदेशातही विमानचालकांच्या इच्छानुकूल गतीने लोकांना देशांतरी पोचवितो किंवा जसा सुयोग्य राजा अधर्म मार्गावर चालणाऱ्या लोकांना त्यापासून दूर करून धर्ममार्गात प्रवृत्त करतो तसेच परमेश्वर, उन्नतीसाठी प्रयत्न करणाऱ्या पण कधी कधी कुसंगात पडणाऱ्या व सन्मार्गापासून दूर जाणाऱ्या माणसांवरही कृपा करतो व आपल्या जवळ आणून धार्मिक बनवितो ॥३॥
टिप्पणी
या मंत्राच्या व्याख्येत विवरणकाराने लिहिले आहे, की तुर्वश व यदु नावाचे राजपुत्र होते. याचप्रकारे भरत स्वामी व सायणचे कथन आहे - तुर्वश व यदु नावाचे दोन राजे होते, ज्यांना शत्रूने दूर नेऊन सोडले होते. त्यांना इंद्राने उत्तम नीतीने दूर देशाहून आणले होते. हा त्या सर्वांचा अभिप्राय आहे. हा सर्व प्रलाप आहे, कारण वेद सृष्टीच्या आरंभी परब्रह्म परमेश्वराकडून प्राप्त झाले होते, त्यामुळे त्यात नंतरच्या कोणत्याही राजाचा इतिहास असू शकत नाही. त्याबरोबरच वैदिक कोष निघण्टुमध्ये ‘तुर्वश’ मनुष्यवाची व समीपवाची शब्दात पठित आहे व ‘यदु’ही मनुष्यवाची शब्दात पठित आहे. त्यामुळेही त्यांना ऐतिहासिक राजा मानणे योग्य नाही. ॥१२७॥
विषय
आता इंद्र हेही ज्याचे नाव, त्या परमेश्वराच्या, विद्युतेच्या आणि राजाच्या मैत्रीची याचना केली आहे -
शब्दार्थ
प्रथम अर्थ (परमेश्वरपर) - (यः) जो (परावतः) दूर अंतरावरील (त्याच्या प्रार्थना, उपास नादीपासून दूर) असलेल्या (यदुम्) यत्नशील मनुष्याला (सुनीती) उत्तम नीतीची प्रेरणा देऊन त्याला (तुर्षशम्) आपल्याजवळ (आनयत्) आणून घेतो (सः) तो (युवा) सदा युवकाप्रमाणे सशक्त असणारा (इन्द्रः) परमेश्वर) (नः) आमचा (सखा) सहायक मित्र व्हावा. (परमेश्वर यत्नशील उद्योगी मनुष्याला सदाचार व सुनीतीची प्रेरणा देतो)।। द्वितीय अर्थ - (विद्युतपर) - (यः) विमान आदी यानांमध्ये प्रयुक्त होणारी जी विद्युत ऊर्जा शक्ती (यदुम्) परिश्रमी, उद्योगी मनुष्याला (परावतः) त्यंत दूर असलेल्या स्थाना (देश वा प्रदेशावरून) (तुर्वशम्) मनोवांष्लित वेगाने (सुनीती) उत्तम प्रकारे साथ देत म्हणजे त्याला कोणत्याही प्रकाराचा त्रास, बाधा न येऊ देता (आनयत्) दूर दूरवरच्या देश - प्रदेशात नेते (सः) ती सर्वज्ञात ऊर्जा विद्युत (युवा) यंत्रात प्रयुक्त होऊन पदार्थांच्या संयोजन वियोजन क्रियेद्वारे विविध पदार्थांच्या निर्माणात साधनभूत होते. ती (इन्द्रः) विद्युत शख्ती (नः) आमची (सखा) मित्र वा सहायक होऊन र्कासाधिका व्हावी (अशी आम्ही वैज्ञानिकजन कामना करतो) ।। तृतीय अर्थ - (राजापर) - (यः) जो राजा (पारवतः) अदम मार्गापासून दूर करून (यदुम्) प्रयत्नशील, उद्यमी (तुर्वशम्) आणि ज्याचे सामर्थ्य हिंसक लोकांनाही वश करण्याएवढे सक्षम आहे, अशा माणसाला (सुनीती) उत्कृष्ट धर्म मार्गावर (आनयत्) चालावयास प्रेरित करतो (सः) असा तो (युवा) शरीराने, मनाने व आत्मिक शक्तीने संपन्न (इन्द्रः) अधर्मादीचा विदारक राजा (नः) आम्हा प्रजाजनांसाठी (सखा) मित्र म्हणून असावा (अशी आमची कामना आहे) ।। ३।।
भावार्थ
जसा विमानादी यानांमध्ये प्रयुक्त होणारा विद्युत रूप अग्नी विमान चालकांच्या इच्छेप्रमाणे लोकांना अति दूरस्थ प्रदेशाहूनही देशान्तरापर्यंत नेतो अथवा जसा एक सुयोग्य राजा अधर्म मार्गावर दूरपर्यंत गेलेल्या (अधर्म कार्यात आकंठ बुडालेल्या) प्रजाजनांना अधर्म मागापासून दूर करून धर्ममार्गावर चालण्यास प्रवृत्त करतो, त्याचप्रमाणे परमेश्वर प्रगतीसाठी धडपडणाऱ्या पण क्रुसंगामध्ये सापडून सन्मार्गापासून दूर गेलेल्या माणसाला कृपा करून आपल्याजवळ आणून (त्यास प्रेरणा देऊन) धार्मिक व्यक्ती बनवतो. ।। ३।। या मंत्राची व्याख्या करताना विवरणकाराने असे लिहिले आहे की तुर्वश आणि यदु नावाचे दोन राजपुत्र होते. याचप्रमाणे भरत स्वामी आणि सायणनेदेखील म्हटले आहे की तुर्वश व यदु नावाचे दोन राजा होऊन गेले. ज्यांना त्यांच्या शत्रूने दूर कुठे तरी नेऊन सोडले होते. आपल्या उत्तम युद्धनीतीचा वापर करून इन्द्र त्या राजांना दूर देशाहून पर त्यांच्या राज्यात घेऊन आला होता. हाच त्या विवरणकारांचा अभिप्राय आहे. पण खरे पाहता हे सर्व प्रलाप मात्र आहे. कारण वेद सृष्टीच्या आरंभ काळात परब्रह्म परमेश्वराकडून प्रादुर्भूत झाले होते. त्यामुळे त्यात कुणा परनर्ती राजा आधीचा इतिहास असणे संभवनीय नाही. या व्यतिरिक्त वैदिक कोष ‘निघण्टु’मध्ये ‘तुर्वश’ शब्द मनुष्य वाचक आणि समीपतावाचक शब्दात गणला गेला आहे आणि ‘यदु’ शब्ददेखील मनुष्यवाची शब्दात पठित आहे. यामुळे तुर्वश आणि यदु यांना कोणी ऐतिहासिक राजा मानणे मुळीच उचित होऊ शकत नाही. ।। ३।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे ।। ३।।
तमिल (1)
Word Meaning
அந்த (அனைத்தும்) உன் வசத்திலாகும், [1]துர்வசம் யதுக்களை தூரதேசத்தினின்று சுபமான கண்களால் சத்திய வழியால் அழைத்து வருபவனான காளையான இந்திரன் எங்களுக்கு நண்பனாகட்டும்.
FootNotes
[1].துர்வசம் - தீய வழியில் செல்லுபவர்களை
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