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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1285
    ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः (प्रथमपादः) इध्मवाहो दार्ढच्युतः (शेषास्त्रयः पादाः) देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    ए꣣ष꣡ सूर्ये꣢꣯ण हासते सं꣣व꣡सा꣢नो वि꣣व꣡स्व꣢ता । प꣡ति꣢र्वा꣣चो꣡ अदा꣢꣯भ्यः ॥१२८५

    स्वर सहित पद पाठ

    एषः꣢ । सूर्येण । हा꣣सते । सं꣡वसा꣢नः । स꣣म् । व꣡सा꣢꣯नः । वि꣣व꣡स्व꣢ता । वि꣣ । व꣡स्व꣢꣯ता । प꣡तिः꣢꣯ । वा꣣चः꣢ । अ꣡दा꣢꣯भ्यः । अ । दा꣣भ्यः ॥१२८५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष सूर्येण हासते संवसानो विवस्वता । पतिर्वाचो अदाभ्यः ॥१२८५


    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । सूर्येण । हासते । संवसानः । सम् । वसानः । विवस्वता । वि । वस्वता । पतिः । वाचः । अदाभ्यः । अ । दाभ्यः ॥१२८५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1285
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    (संवसानः) सबको अपने तेज से आच्छादित करता हुआ (एषः) यह सोम परमेश्वर (विवस्वता) अन्धकार को दूर करनेवाले (सूर्येण) सूर्य के साथ (हासते) स्पर्धा करता है और (अदाभ्यः) जिसे दबाया या पराजित नहीं किया जा सकता, ऐसा यह (वाचः पतिः) वाणी का भी स्वामी है ॥६॥

    भावार्थ

    परमेश्वर सूर्य, बिजली आदि से भी अधिक तेजस्वी और वाचस्पतियों का भी मूर्धन्य है ॥६॥ इस खण्ड में परमात्मा और जीवात्मा के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ दशम अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (एषः) यह (वाचः-पतिः) स्तुति वाणी तथा वेदवाणी का स्वामी८ (अदाभ्यः) न दबाने योग्य परमात्मा (संवसानः) अपने आनन्दमय रसीले स्वरूप से उपासकों को सम्यक् आच्छादित करता हुआ९ (विवस्वता सूर्येण) खुलते हुए—किरणें फेंकते हुए सूर्य के समान१० (हासते ‘हासयते’) हँसता—हर्षित करता हुआ—ज्ञानप्रकाश और अमृत आनन्दरस से हर्षाता है॥६॥

    विशेष

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    विषय

    सूर्य से भी स्पर्धा

    पदार्थ

    १. (एषः) = यह प्रियमेध अपने मस्तिष्करूप गगन में ज्ञान का सूर्योदय करके (सूर्येण) = इस द्युलोक के सूर्य के साथ (हासते) = स्पर्धा करता है [हासति: स्पर्धायाम्–नि० ९.३९], अर्थात् सूर्य के समान ही चमकता है अथवा यह प्रियमेध सूर्येण- उदित हुए ज्ञानसूर्य से हासते- अत्यन्त हर्ष का अनुभव करता है [हासति: हर्षमाणे – नि० ९.३९] । २. इतने ऊँचे ज्ञान को प्राप्त करके (विवस्वता) = [विवस्वन्तो मनुष्याः –नि० २.३.२४] मानवजाति के साथ ही यह (संवसान:) = उत्तम प्रकार से रहनेवाला होता है । यह अभिमानी बनकर अलग निवास नहीं करने लगता - - इसे मनुष्यों से घृणा नहीं हो जाती, अथवा झंझट समझकर यह एकान्त स्थानों में समाधि का ही अनुभव नहीं करता रहता, अपने ज्ञानरस में ही नहीं डूबा रहता । ३. (वाचः पतिः) = यह वेदवाणी का पति होता है— ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञानवाला होता है और अपनी वाणी का पति होने से कभी कटु शब्द नहीं बोलता - बड़ी मपीतुली वाणी का ही प्रयोग करता है, ४. परन्तु (अदाभ्यः) = दबता नहीं । नम्र व मधुर वाणीवाला होता है – परन्तु किसी निर्बलता के कारण नहीं । शक्तिशाली होता हुआ यह अपने माधुर्य को स्थिर रखता है। ‘अदाभ्यः' का अर्थ यह भी है कि यह अहिंसित होता है - यह अपनी जीवन-यात्रा में कामक्रोधादि से आक्रान्त नहीं होता ।

    भावार्थ

    ज्ञान-सूर्य का उदय करके हम सूर्य से भी स्पर्धा करनेवाले बनें । सूर्य की भाँति निष्कामभाव से प्रकाश व जीवन देनेवाले बनें । हमारा जीवन सूर्य की भाँति चमकता हुआ और प्रसन्न हो।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    (संवसानः) सर्वं स्वतेजसा आच्छादयन्। [वस आच्छादने, अदादिः।] (एषः) अयं सोमः परमेश्वरः (विवस्वता) तमोविवासनवता (सूर्येण) आदित्येन (हासते) स्पर्धते। [हासति स्पर्धायाम्। निरु० ९।३७।] अपि च, (अदाभ्यः) दब्धुं पराजेतुमशक्यः एषः (वाचः पतिः) गीष्पतिः अपि विद्यते ॥६॥

    भावार्थः

    परमेश्वरः सूर्यविद्युदादिभ्योऽप्यधिकतेजा वाचस्पतीनामपि च मूर्धन्यो विद्यते ॥६॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मनो जीवात्मनश्च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This Omnipotent God, overshadowing the entire universe with the lustrous Sun a verily full of splendour, as the Unconquerable Lord of Vedic speech.

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    Meaning

    It rises and abides with the sun on top of the regions of light and, internalised in the pure mind and clairvoyant consciousness, it is the divine ecstasy of the celebrant. (Rg. 9-27-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (एषः)(वाचः पतिः) સ્તુતિ વાણી તથા વેદવાણીનો સ્વામી (अदाभ्यः) કોઈથી દબાય નહિ એવો પરમાત્મા (संवसानः) પોતાના આનંદમય રસીલા સ્વરૂપથી ઉપાસકોને સમ્યક્ આવરીને (विवस्वता सूर्येण) ખુલતા કિરણોને ફેંકતા સૂર્યની સમાન (हासते 'हासयते') હસતાં-હર્ષિત કરતાં-જ્ઞાન પ્રકાશ અને અમૃત આનંદરસથી હર્ષિત-આનંદિત કરે છે. (૬)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर सूर्य, विद्युत इत्यादींपेक्षाही अधिक तेजस्वी व वाचस्पतींचा (वाणीचा स्वामी) मूर्धन्य आहे. ॥६॥

    टिप्पणी

    या खंडात परमात्मा व जीवात्म्यायांच्या विषयी वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

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