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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1361
    ऋषिः - प्रगाथो घौरः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    2

    अ꣣वक्रक्षि꣡णं꣢ वृष꣣भं꣡ य꣢था꣣ जु꣢वं꣣ गां꣡ न च꣢꣯र्षणी꣣स꣡ह꣢म् । वि꣣द्वे꣡ष꣢णꣳ सं꣣व꣡न꣢नमुभयङ्क꣣रं꣡ मꣳहि꣢꣯ष्ठमुभया꣣वि꣡न꣢म् ॥१३६१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अवक्रक्षि꣡ण꣢म् । अ꣣व । क्रक्षि꣡ण꣢म् । वृ꣣षभ꣢म् । यथा । जु꣡व꣢꣯म् । गाम् । न । च꣣र्षणीस꣡ह꣢म् । च꣣र्षणि । स꣡ह꣢꣯म् । वि꣣द्वे꣡ष꣢णम् । वि꣣ । द्वे꣡ष꣢꣯णम् । सं꣣व꣡न꣢नम् । स꣣म् । व꣡न꣢꣯नम् । उ꣣भयङ्कर꣢म् । उ꣣भयम् । कर꣢म् । म꣡ꣳहि꣢꣯ष्ठम् । उ꣣भयावि꣡न꣢म् ॥१३६१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवक्रक्षिणं वृषभं यथा जुवं गां न चर्षणीसहम् । विद्वेषणꣳ संवननमुभयङ्करं मꣳहिष्ठमुभयाविनम् ॥१३६१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अवक्रक्षिणम् । अव । क्रक्षिणम् । वृषभम् । यथा । जुवम् । गाम् । न । चर्षणीसहम् । चर्षणि । सहम् । विद्वेषणम् । वि । द्वेषणम् । संवननम् । सम् । वननम् । उभयङ्करम् । उभयम् । करम् । मꣳहिष्ठम् । उभयाविनम् ॥१३६१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1361
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि वह परमेश्वर कैसा है।

    पदार्थ

    (अवक्रक्षिणम्) सूर्य आदि लोकों को आकर्षण द्वारा धारण करनेवाले, (वृषभं यथा) वर्षा करनेवाले बादल के समान (जुवम्) उपासकों के पास पहुँचनेवाले, अर्थात् बादल जैसे वर्षाजल के द्वारा भूमि पर पहुँचता है, वैसे ही आनन्द के उपहारों के साथ उपासक के पास पहुँचनेवाले, (गां न) बिजली के समान (चर्षणीसहम्) दुर्जनों को तिरस्कृत करनेवाले, (विद्वेषणम्) द्वेष से रहित, (संवननम्) स्तोताओं से संभजनीय, (उभयङ्करम्) द्युलोक-भूलोक दोनों के रचयिता, (मंहिष्ठम्) सबसे बड़े दानी, (उभयाविनम्) निग्रह और अनुग्रह दोनों गुणों से युक्त इन्द्र परमात्मा की (स्तोत) स्तुति करो। [यहाँ ‘स्तोत’ यह पद पूर्व मन्त्र से लाया गया है] ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    आकाश में बिना ही आधार के आकर्षणरूप डोर से लोक-लोकान्तरों को धारण करनेवाले, सज्जनों को उत्साहित करनेवाले, दुर्जनों को दण्डित करनेवाले, जगत् के रचयिता, परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर की सबको भली-भाँति उपासना करनी चाहिए ॥२॥

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    पदार्थ

    (अवक्रक्षिणम्) काम क्रोध आदि के छिन्न भिन्न करने वाले५ (वृषभं यथा) वृषभ के समान (जुवं गां न) प्राप्त६ पृथिवी७ के सदृश (चर्षणीसहम्) देखने वाले ज्ञानवान् उपासक के तृप्तिकर्ता८ इन्द्र—ऐश्वर्यवान् परमात्मा को, तथा (विद्वेषणं संवननम्-उभयङ्करम्) पापियों-नास्तिकों से द्वेषकर्ता, उपासकों को सम्भागी बनाने वाले—अपनाने वाले दोनों द्वेष करने और प्रसाद देने वाले (मंहिष्ठम्-उभयाविनम्) दाता और दोनों के रक्षक परमात्मा को ‘शंसत’९ प्रशंसित करो॥२॥

    विशेष

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    विषय

    किस प्रभु का शंसन

    पदार्थ

    गत मन्त्र से ‘शंसत, स्तोत' क्रियाओं का अध्याहार हो रहा है। उस प्रभु का ही स्तवन व शंसन करो जो १. (अवकक्षिणम्) = कामादि शत्रुओं के अवकर्षक [dashing down, overcoming] हैं, उनको कुचल [crush] डालनेवाले हैं । २. (वृषभम्) = शक्तिशाली हैं तथा सुखों के वर्षक हैं । ३. (यथाजुवम्) = योग्य, उचित प्रेरणा देनेवाले हैं [यथा=योग्य] । ४. (गां न) = इस पृथिवी के समान सब (चर्षणीसहम्) = मनुष्यों का सहन करनेवाले हैं— सबपर कृपा [mercy] करनेवाले हैं। भूमि माता के समान क्षमाशील हैं। ५. (वि-द्वेषणम्) = राग-द्वेष से रहित हैं [वि= रहित] ६. (संवननम्) = सब प्राणियों के लिए उचित सम्पत्ति का संविभाग करनेवाले हैं [विभक्तारम्] । ७. (उभयंकरम्) = अभ्युदय व नि: श्रेयस दोनों को सिद्ध करनेवाले हैं। ८. (मंहिष्ठम्) - दातृतम हैं – अनन्त दान देनेवाले हैं तथा ९. (उभयाविनम्) = दोनों लोकों में रक्षा करनेवाले हैं।

    नोट – ‘उभयंकरम्' शब्द का अर्थ यह भी किया जा सकता है कि भविष्य में कर्मानुसार निग्रह व अनुग्रह दोनों के करनेवाले हैं। प्रभु 'शिव' हैं तो 'रुद्र' भी हैं ही । हाँ, यह तो ठीक है कि प्रभु का निग्रह भी जीव के हित के लिए ही है। उससे दी गयी तो मृत्यु भी अमृत का साधन ही है।

    भावार्थ

    हम प्रभु का स्तवन करते हुए स्वयं भी कामादि को कुचलनेवाले बनें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    और हे विद्वानो ! आप लोग (जुवं) वेगवान्, शक्तिशाली, (अवक्रक्षिणं) सबको अपनी ओर खींचने हारे (वृषभं) बलवान् श्रेष्ठ (गां न) बैल के समान बलवान्, (वृषभं) समस्त सुखों के वर्षक (चर्षणीसहम्) समस्त संसार के मानवों के अपराधों को सहन करने हारे, उन पर क्षमाशील, उनके व्यवस्थापक, (विद्वेषणं) दुष्टों को दण्ड देने के कारण उनकी अप्रीति का पात्र और (संवननं) श्रेष्ठ पुरुषों के शरण करने योग्य (उभयंकरं) अनुग्रह और दण्ड, पालन और संहार दोनों के करने हारे अतएव (मंहिष्ठं) सबसे बड़े दाता, (उभयाविनं) सज्जन और दुर्जन, ज्ञानी और अज्ञानी, दोनों के जीवनों की समान भाव से रक्षा करने हारे (इन्द्रम् इत् स्तोत) उस परमेश्वर की ही स्तुति करो। इन्द्रियों को आत्मा और विद्वानों को परमात्मा के प्रति इस भाव से रहना चाहिये। इन्द्रियों के पक्ष में—आत्मा (विद्वेषणं संवननं) द्वेष और राग से युक्त, ईप्सा और जिहासा या पाने और त्यागने की इच्छा द्वारा दोनों कार्यों को करनेहारा और सुखकर और दुःखकर दोनों प्रकारों के मार्गों पर जानेहारा है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ६ मेधातिथिः काण्वः। १० वसिष्ठः। ३ प्रगाथः काण्वः। ४ पराशरः। ५ प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ८ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वरा। ९ हिरण्यस्तूपः। ११ सार्पराज्ञी। देवता—१ इध्मः समिद्धो वाग्निः तनूनपात् नराशंसः इन्द्रश्चः क्रमेण। २ आदित्याः। ३, ५, ६ इन्द्रः। ४,७-९ पवमानः सोमः। १० अग्निः। ११ सार्पराज्ञी ॥ छन्दः-३-४, ११ गायत्री। ४ त्रिष्टुप। ५ बृहती। ६ प्रागाथं। ७ अनुष्टुप्। ४ द्विपदा पंक्तिः। ९ जगती। १० विराड् जगती॥ स्वरः—१,३, ११ षड्जः। ४ धैवतः। ५, ९ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८ पञ्चमः। ९, १० निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कीदृशः स परमेश्वरोऽस्तीत्याह।

    पदार्थः

    (अवक्रक्षिणम्) अवक्रष्टुं सूर्यादिलोकान् परस्पराकर्षणेन धारयितुं शीलमस्येति अवक्रक्षी तम्, (वृषभं यथा) वर्षकं मेघमिव (जुवम्) गन्तारम्, मेघो यथा वृष्टिजलेन भूमिमुपगच्छति तथा आनन्दोपहारैः उपासकान् उपगन्तारमित्यर्थः, (गां न) विद्युतमिव (चर्षणीसहम्) दुर्जनानां पराभवितारम्, (विद्वेषणम्) विगतद्वेषम्, (संवननम्) स्तोतृभिः संभजनीयम्, (उभयङ्करम्) उभयस्य द्यावापृथिवीरूपस्यकर्त्तारम्, (मंहिष्ठम्) दातृतमम्, (उभयाविनम्२) निग्रहानुग्रहोभयगुणोपेतम्, इन्द्रं परमात्मानं स्तोत इति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते। [बहुलं छन्दसि। अ० ७।२।१२२ इत्यत्र ‘छन्दसि विनिप्रकरणेऽष्ट्रामेखलाद्वयोभयरुजाहृदयानां दीर्घश्चेति वक्तव्यम्’ इति वार्तिकेन उभयशब्दान्मत्वर्थे विनि प्रत्ययो दीर्घत्वं च] ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    गगने निराधारमाकर्षणरज्जुना लोकलोकान्तराणां धारयिता, सज्जनानामुत्साहयिता, दुर्जनानां दण्डयिता, जगत्स्रष्टा, परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः सर्वैः समुपास्यः ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O learned persons, sing the praise of God alone, Who attracts all towards Himself, is active like a bull, the Tolerator of the offences of mankind like the Earth, Free from hatred, the Refuge of the noble, the Protector and Destroyer of men, Most Charitable, and Munificent to the literate and the illiterate !

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    Meaning

    Worship Indra only, instant of action, who most spontaneously rushes to the devotee for protection and upon the evil for punishment, correction or destruction. He is profusely and potently generous, patient and forbearing giver of peace and nourishment to people like the meek cow and motherly earth, saviour from hate and jealousy, most adorable, giver of both material well being (abhyudaya) and spiritual freedom (nihshreyas), most munificent and majestic, and lord ruler and protector of both nature and the soul. (Rg. 8-1-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अवक्रक्षिणम्) કામ-ક્રોધ આદિને છિન્ન-ભિન્ન કરનાર (वृषभं यथा) બળદની સમાન (जुवं गां न) પ્રાપ્ત પૃથિવીની સમાન (चर्षणीसहम्) દેખનાર જ્ઞાનવાન ઉપાસકનો તૃપ્તિકર્તા ઇન્દ્ર-ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માને, તથા (विद्वेषणं संवननम् उभयङ्करम्) પાપીઓ-નાસ્તિકોથી દ્વેષકર્તા, ઉપાસકોને સંભાગી બનાવનાર-અપનાવનાર બન્ને દ્વેષ કરનાર તથા પ્રસાદ આપનાર (मंहिष्ठम् उभयाविनम्) દાતા અને બન્નેના રક્ષક પરમાત્માને ‘શંસત’ પ્રશંસિત કરો. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आकाशात आधाराशिवाय आकर्षणरूप दोरीने लोकलोकांतरांना धारण करणारा, जगाचा रचनाकार, परम ऐश्वर्यवान जगदीश्वराची चांगल्या प्रकारे उपासना केली पाहिजे. ॥२॥

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