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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1390
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - इन्द्रः
छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
2
न꣡ की꣢ रे꣣व꣡न्त꣢ꣳ स꣣ख्या꣡य꣢ विन्दसे꣣ पी꣡य꣢न्ति ते सुरा꣣꣬श्वः꣢꣯ । य꣣दा꣢ कृ꣣णो꣡षि꣢ नद꣣नु꣡ꣳ समू꣢꣯ह꣣स्या꣢꣫दित्पि꣣ते꣡व꣢ हूयसे ॥१३९०॥
स्वर सहित पद पाठन꣢ । किः꣣ । रेव꣡न्त꣢म् । स꣣ख्या꣡य꣢ । स꣣ । ख्या꣡य꣢꣯ । वि꣣न्दसे । पी꣡य꣢꣯न्ति । ते꣣ । सुराश्वः꣢ । य꣣दा꣢ । कृ꣣णो꣡षि꣢ । न꣣दनु꣢म् । सम् । ऊह꣣सि । आ꣢त् । इत् । पि꣣ता꣢ । इ꣣व । हूयसे ॥१३९०॥
स्वर रहित मन्त्र
न की रेवन्तꣳ सख्याय विन्दसे पीयन्ति ते सुराश्वः । यदा कृणोषि नदनुꣳ समूहस्यादित्पितेव हूयसे ॥१३९०॥
स्वर रहित पद पाठ
न । किः । रेवन्तम् । सख्याय । स । ख्याय । विन्दसे । पीयन्ति । ते । सुराश्वः । यदा । कृणोषि । नदनुम् । सम् । ऊहसि । आत् । इत् । पिता । इव । हूयसे ॥१३९०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1390
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा को संबोधन है।
पदार्थ
हे इन्द्र ! हे सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर ! आप (रेवन्तम्) जिसके पास केवल धन है, दान, परोपकार आदि नहीं है, ऐसे मनुष्य को (सख्याय) मित्रता के लिए (न किः) कभी नहीं (विन्दसे) पाते हो। (ते) वे केवल धनवाले लोग (सुराश्वः) मदिरा-पान द्वारा प्रमत्त हुओं के समान धन के मद से प्रमत्त हुए (पीयन्ति) हिंसा करते हैं, सताते हैं। (यदा) जब, आप धनवान् को (नदनुम्) स्तोत्र नाद गुँजानेवाला स्तोता (कृणोषि) बनाते हो, तब (समूहसि) उसे उत्तम स्थिति प्राप्त करा देते हो, (आत् इत्) उसके अनन्तर उससे आप (पिता इव) पिता के समान (हूयसे) बुलाये जाते हो ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ
धन पाकर जो लोग ऐश्वर्य के मद में मस्त नास्तिक होकर न सत्पात्रों में धन का दान करते हैं, न धर्माचार का सेवन करते हैं, न परमेश्वर को उपासते हैं, उनका धन धन नहीं, किन्तु उनके लिए मौत ही सिद्ध होता है ॥२॥
पदार्थ
(रेवन्तं सख्याय न किः-विन्दसे) केवल धनवान् है ऐसा जान तू उसे मित्रता के लिये कभी नहीं प्राप्त होता है—स्वीकार करता है (ते सुराश्वः पीयन्ति) वे सुरापान कर मद में फूले१ हैं अन्य जनों को पीड़ित करते हैं२ (यदा नदनुं कृणोषि) जब तू अपना अर्चक—स्तुतिकर्ता३ बना लेता है—तेरे उपदेश या प्रभाव से तेरा स्तुतिकर्ता बन जाता है (समूहसि) तू उसे सम्यक् वहन करता है समुन्नत करता है (आत्-इत्) अनन्तर ही (पिता-इव हूयसे) तू पिता के समान स्मरण किया जाता है॥२॥
विशेष
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विषय
धन का नशा [धनोन्माद ]
पदार्थ
हे प्रभो! आप (रेवन्तम्) = धनवाले को (सख्याय) = मित्रता के लिए (न विन्दसे) = नहीं प्राप्त करते हो । संसार में धनी आदमियों का झुकाव प्रायः प्रभु की ओर नहीं होता । (ते) = वे (सुराश्वः) = [ सुर ऐश्वर्ये] अपने ऐश्वर्य में बढ़े हुए, सदा अपने ऐश्वर्य में ही विचरनेवाले [शिव गतिवृद्धयोः] (पीयन्ति) = खूब शराब इत्यादि पीते हैं और प्रभु का उपहास करते हैं [द० १२.४२ पीयति = निन्दति] धन के मद में ये खूब शराब आदि पीते हैं, आस्तिकता का उपहास उड़ाते हैं और [नि० ४.२५ हिंसन्ति] गरीबों की हिंसा करते हैं । वस्तुतः उनकी हिंसा करके ही तो ये अपने ऐश्वर्य को बढ़ाते हैं ।
परन्तु (यदा) = जब प्रभु (नदनुम्) = भूकम्पादि की गर्जना [Sounding, Roaring] (कृणोषि) = करते हैं और (समूहसि) = उनकी सारी सम्पत्ति पर झाड़ू लगा देते हैं - अर्थात् उनकी सभी सम्पत्ति का सफ़ाया कर देते हैं तब (आत् इत्) = इसके बाद शीघ्र ही (पिता इव हूयसे) = हे प्रभो! आप पिता की भाँति पुकारे जाते हो ।
धन के नशे में मनुष्य प्रभु को भूल जाता है - यह नशा उतरते ही प्रभु का स्मरण हो आता है। धनी १. पीता था, २. प्रभु का उपहास करता था, ३. गरीबों का गला घोटता था। उसे धन ही प्रभु दिखता था। धन के आवरण ने प्रभु को उससे ओझल कर रक्खा था। आज उस पर्दे के हटते ही प्रभु का दर्शन हो गया है। अब यह अपने जीवन का सुभरण [उत्तम सञ्चालन] करके 'सोभरि' बन गया है। धन का मादक प्रभाव न रहने से यह 'काण्व' [मेधावी] हो गया है ।
भावार्थ
हम धन के मद में प्रभु को न भूल जाएँ ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मानं सम्बोधयति।
पदार्थः
हे इन्द्र ! हे सर्वान्तर्यामिन् जगदीश्वर ! त्वम् रेवन्तम् केवलधनवन्तं दानपरोपकारादिरहितं जनम् (सख्याय) सखिभावाय (न किः) न कदापि (विन्दसे) प्राप्नोषि, (ते) केवलधनवन्तो जनाः (सुराश्वः) सुरापानेन प्रमत्ताः इव धनमदप्रमत्ताः सन्तः। [सुरया श्वयति वर्द्धते प्रमत्तो भवति यः स सुराशूः, ते सुराश्वः।] (पीयन्ति) हिंसन्ति दीनान् जनान् पीडयन्ति। [पीयतिः हिंसाकर्मा। निरु० ४।२५।] (यदा) यस्मिन् काले, त्वम् धनवन्तं जनम् (नदनुम्) स्तोतारम् (कृणोषि) करोषि, तदा (समूहसि) संवहसि, शोभनां स्थितिं प्रापयसि, (आत् इत्) तदनन्तरमेव, तेन त्वम् (पिता इव) जनक इव (हूयसे) स्तूयसे ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
भावार्थः
धनं प्राप्य ये जना ऐश्वर्यमदमत्ता नास्तिकाः सन्तो न सत्पात्रेषु धनदानं कुर्वन्ति, न धर्माचारं सेवन्ते, न परमेश्वरमुपासते तेषां धनं धनं न प्रत्युत तत्कृते मृत्युरेव ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, Thou findest not the wealthy men to be thy friend; as they who are flushed with the wine of wealth destroy even their well-wishers. When Thou makest a preacher of virtue Thy friend, and leadest him on the path of progress then Thou art invoked by him as a Father!
Meaning
You do not just care to choose the rich for companionship, if they are swollen with drink and pride and violate the rules of divine discipline. But when you attend to the poor and alter their fortune for the better, you are invoked like father with gratitude which the voice of thunder acknowledges and approves. (Rg. 8-21-14)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (रेवन्तं सरव्या न किः विन्दसे) કેવલ ધનવાન છે, તેમ જાણીને તું તેને મિત્રતાને માટે કદી પણ પ્રાપ્ત થતો નથી-સ્વીકાર કરતો નથી. (ते सुराश्वः पीयन्ति) તે દારૂડિયો-દારૂ પીને મદમાં છકેલો છે. અન્યજનોને પીડિત કરે છે. (यदा नदनुं कृणोषि) જ્યારે તું પોતાનો અર્ચક-સ્તુતિકર્તા બનાવી લે છે-તારા ઉપદેશથી અથવા પ્રભાવથી તારો સ્તુતિકર્તા બની જાય છે, (समूहसि) ત્યારે તું સમ્યક્ વહન કરે છે, સમુન્નત કરે છે. (आत् इत्) ત્યાર પછી જ (पिता इव हूयसे) તું પિતા સમાન સ્મરણ કરવામાં આવે છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
धन प्राप्त करून जे लोक ऐश्वर्याच्या मदात मस्त राहून नास्तिक बनून, सत्पात्रांना धनाचे दान करत नाहीत, धार्मिक आचरण करत नाहीत, परमेश्वराची उपासना करत नाहीत, त्यांचे धन हे धन नसून त्यांच्यासाठी मृत्यूच सिद्ध होतो. ॥२॥
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