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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1392
    ऋषिः - मेधातिथि0मेध्यातिथी काण्वौ देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
    2

    आ꣢ त्वा꣣ र꣡थे꣢ हिर꣣ण्य꣢ये꣣ ह꣡री꣢ म꣣यू꣡र꣢शेप्या । शि꣣तिपृष्ठा꣡ व꣢हतां꣣ म꣢ध्वो꣣ अ꣡न्ध꣢सो वि꣣व꣡क्ष꣢णस्य पी꣣त꣡ये꣢ ॥१३९२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । त्वा꣣ । र꣡थे꣢꣯ । हि꣣रण्य꣡ये꣢ । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । म꣣यू꣡र꣢शेप्या । म꣣यू꣡र꣢ । शे꣣प्या । शितिपृष्ठा꣢ । शि꣣ति । पृष्ठा꣢ । व꣣हताम् । म꣡ध्वः꣢꣯ । अ꣡न्ध꣢꣯सः । वि꣣व꣡क्ष꣢णस्य । पी꣣त꣡ये꣢ ॥१३९२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्वा रथे हिरण्यये हरी मयूरशेप्या । शितिपृष्ठा वहतां मध्वो अन्धसो विवक्षणस्य पीतये ॥१३९२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । त्वा । रथे । हिरण्यये । हरीइति । मयूरशेप्या । मयूर । शेप्या । शितिपृष्ठा । शिति । पृष्ठा । वहताम् । मध्वः । अन्धसः । विवक्षणस्य । पीतये ॥१३९२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1392
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में उपासक को सम्बोधन किया गया है।

    पदार्थ

    हे उपासक ! (हिरण्यये) सुनहरे (रथे) रथ में (मयूरशेप्या) मोर के रंग के अर्थात् हरे-काले रंग के और (शितिपृष्ठाः) श्वेत पीठवाले (हरी) उत्कृष्ट घोड़े (त्वा) तुझे (विवक्षणस्य) जगत् के भार को वहन करनेवाले जगदीश्वर के (मध्वः) मधुर (अन्धसः) आनन्द-रस के (पीतये) पान के लिए (आ वहताम्) सार्वजनिक उपासना-गृह में पहुँचाएँ ॥२॥

    भावार्थ

    उपासक लोग रथ में श्रेष्ठ घोड़ों को जोतकर उपासना-भवन में जाकर परमेश्वर की उपासना करके आनन्द प्राप्त करें ॥२॥

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    पदार्थ

    (हिरण्यये रथे) हे इन्द्र—परमात्मन्! अमृतरूप रमणीय४ मोक्ष के निमित्त (मयूरशेप्या) श्रोत्रस्पर्शी—दोनों कानों को स्पर्श करने वाले५ (शितिपृष्ठा) श्वेत—निर्मल स्तर वाले (हरी) ऋक् और साम—स्तुति और उपासना६ (त्वा) तुझ परमात्मा को (वहताम्) तुझ उपासक की ओर लावे (विवक्षणस्य) विशेष प्रशंसनीय—(अन्धसः) आध्यानीय उपासनारस का (पीतये) पान करने के लिये॥२॥

    विशेष

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    विषय

    सफ़ेद व काली पीठवाले घोड़े

    पदार्थ

    संसार में मनुष्य दो भागों में विभक्त हैं, कुछ समझदार हैं कुछ नासमझ । समझदार धीर पुरुष
    प्रेय और श्रेय में विवेक करके श्रेयमार्ग का ही अवलम्बन करता है । इसी व्यक्ति को वेद में मेधातिथि = बुद्धि की ओर निरन्तर चलनेवाला कहा है। इस मार्ग पर चलते-चलते एक दिन यह ‘मेध्यातिथि'=उस पवित्र प्रभु का अतिथि बनता है। प्रभु इससे कहते हैं कि (त्वा) = तुझे (हिरण्यये) = इस ज्योतिर्मय (रथे) = शरीररूप रथ में जुते हुए (हरी) = घोड़े - इन्द्रियरूप अश्व (आवहताम्) = सर्वथा लेचलें । कैसे घोड़े ? १. (मयूर शेप्या) = [मयति इति मयूरः, मय गतिमत्योः ] - ज्ञान और गति=कर्म का निर्माण करनेवाली [शेप्], अर्थात् ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ । तेरी ज्ञानेन्द्रियाँ निरन्तर ज्ञानवृद्धि में लगी हों और कर्मेन्द्रियाँ उत्तम कर्मों के करने में लगी हों । २. (शितिपृष्ठा) = [शिति=white, black] जो घोड़े सफ़ेद और काली पीठवाले हैं। ज्ञानेन्द्रियरूप अश्व तो ज्ञान की वृद्धि करते हुए शुक्लमार्ग से मोक्ष को प्राप्त करनेवाले हैं, और कर्मेन्द्रियरूप अश्व यज्ञ-यागादि काम्य कर्मों में निरन्तर लगे रहकर ‘कृष्णमार्ग’ से स्वर्ग में ले-जानेवाले हैं। इसी विचार से इन्हें यहाँ सफेद व काली पीठवाला कहा गया है। ये घोड़े हमें किधर ले-चलें ? (पीतये) = पीने के लिए। किसके पान के लिए ? (अन्धसः) = अत्यन्त ध्यान देने योग्य [आध्यायनीय] सोमपान के लिए, जोकि (मध्वः) = अत्यन्त मधुर है—जीवन में वास्तविक माधुर्य को लानेवाला हे, और (विवक्षणस्य) = विशिष्ट उन्नति [वक्ष=wax बढ़ना] का हेतु है । इस सोम की रक्षा से ही हमें उस सर्वमहान् सोम= प्रभु को पाना है।
     

    भावार्थ

    हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ ज्ञानप्राप्ति व यज्ञादिकर्मों में लगी रहें । यही वस्तुतः सोमपान – वीर्यरक्षा का सर्वोत्तम साधन है।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथोपासकः सम्बोध्यते।

    पदार्थः

    हे उपासक ! (हिरण्यये) सुवर्णवज्ज्योतिर्मये (रथे) स्यन्दने (मयूरशेप्या) मयूरशेप्यौ मयूरवर्णौ, हरिताभकृष्णवर्णौ इत्यर्थः (शितिपृष्ठा) शितिपृष्ठौ श्वेतपृष्ठौ (हरी) प्रशस्तौ अश्वौ (त्वा) त्वाम् (विवक्षणस्य) जगद्भारवोढुः इन्द्रस्य जगदीश्वरस्य। [अहेः सन्नन्तस्य कर्तरि ल्युटि रूपम्।] (मध्वः) मधुरस्य (अन्धसः) आनन्दरसस्य (पीतये) पानाय (आ वहताम्) सार्वजनिकम् उपासनागृहं प्रापयताम् ॥२॥

    भावार्थः

    उपासकजनाः रथे श्रेष्ठौ तुरगौ नियुज्योपासनागृहं गत्वा परमेश्वरमुपास्यानन्दं प्राप्नुवन्तु ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, in this decaying body, may thy two bays of peacock tails and white backs, convey thee to quaff the most praiseworthy and sweet essence of the force of life !

    Translator Comment

    Two bays mean Prana and Apana, which are beautiful like the tail of a peacock and absolutely pure.

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    Meaning

    May the vibrant forces of divine energy, joined to your golden chariot of the universe with rhythmic majesty like the peacocks feather tail and mighty power with circuitous motion of energy currents, radiate your presence here so that you may acknowledge and accept our love and homage and we experience the bliss of divine presence. (Rg. 8-1-25)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (हिरण्यये रथे) હે ઇન્દ્ર = પરમાત્મન્ ! અમૃતરૂપ રમણીય મોક્ષને માટે (मयूरशेप्या) શ્રોત્રસ્પર્શી-બન્ને કાનોને સ્પર્શ કરનારા (शितिपृष्ठा) શ્વેત-નિર્મળ સ્તરવાળા (हरी) ઋક્ અને સામ-સ્તુતિ અને ઉપાસના (त्वा) તને પરમાત્માને (वहताम्) તારા ઉપાસકની તરફ લાવે (विविक्षणस्य) વિશેષ પ્રશંસનીય, (अन्धसः) આધ્યાનીય ઉપાસનારસનું (पीतये) પાન કરવા માટે. [લાવે.] (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उपासकांनी रथात श्रेष्ठ घोडे जुंपून उपासनाभवनात जाऊन परमेश्वराची उपासना करून आनंद प्राप्त करावा. ॥२॥

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